Book Title: Pragnapana Sutra Part 03
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रज्ञापना सूत्र
१६. परित्त द्वार परित्ते णं पुच्छा? गोयमा! परित्ते दुविहे पण्णत्ते।तंजहा - कायपरित्ते य संसारपरित्ते य। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! परित्त जीव कितने काल तक निरन्तर परित्तपर्याय में रहता है? उत्तर - हे गौतम! परित्त दो प्रकार के हैं। वे इस प्रकार हैं - १. कायपरित्त और २. संसारपरित्त।
विवेचन - परित्त दो प्रकार के कहे गये हैं - १. कायपरित्त - परित्त यानी परिमित, काय अर्थात् शरीर, परिमित शरीरी यानी प्रत्येक शरीरी २. संसार परित्त - जिसने सम्यक्त्व आदि से संसार परित्त- परिमित किया है, वह संसार परित्त कहलाता है। अर्थात् सम्यक्त्व आने के बाद जिनका संसार काल जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट देशोन अर्ध पुद्गल परावर्तन जितना शेष हो ऐसे जीव संसार परित्त कहलाते हैं।
कायपरित्ते णं पुच्छा?
गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुढविकालो; असंखिजाओ उस्सप्पिणि ओसप्पिणीओ।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! कायपरित्त कितने काल तक कायपरित्त पर्याय में रहता है ?
उत्तर - हे गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट पृथ्वीकाल तक अर्थात् असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणियों तक कायपरित्त पर्याय में निरन्तर बना रहता है।
विवेचन - जब कोई जीव निगोद से निकल कर प्रत्येक शरीर वालों में उत्पन्न होता है और वहाँ अन्तर्मुहूर्त रह कर पुनः निगोद में उत्पन्न हो जाता है तब काय परित्त की जघन्य अन्तर्मुहूर्त की कायस्थिति होती है। उत्कृष्ट असंख्यात काल (पृथ्वीकाल) तक जीव निरन्तर कायपरित्त रूप में रहता है। पृथ्वीकाल की जितनी कायस्थिति कही गयी है उतना काल यहाँ समझना चाहिए। जो असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी रूप है।
- यद्यपि सभी प्रत्येक शरीरी (छहों काय के) जीवों को कायपरित्त कहा जाता है तथापि यहाँ पर पृथ्वीकाल की जो कायस्थिति बताई गयी है उसमें मात्र पृथ्वीकाय की कायस्थिति नहीं समझ कर शेष कायों की कायस्थिति भी शामिल समझनी चाहिए। सबकी कायस्थिति मिलाकर भी असंख्याता उत्सर्पिणी अवसर्पिणी जितनी ही होने से एवं पुढवीकाल में जिस प्रकार से कही गई है उसी प्रकार से बोली जाने से शब्दों की समानता से यहाँ पर भी (कायपरित्त में) कायस्थिति 'पुढवीकाल' जितनी बतलाई गयी है।
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