Book Title: Pragnapana Sutra Part 03
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 340
________________ बीसवां अन्तक्रिया पद - असंज्ञी-आयुष्य प्ररूपणा ३२७ कठिन शब्दार्थ - पकरेइ - करता है। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! क्या असंज्ञी जीव नैरयिक की आयु का उपार्जन करता है अथवा यावत् देवायु का उपार्जन करता है ? उत्तर - हे गौतम! असंज्ञी जीव नैरयिक-आयु का भी उपार्जन करता है, यावत् देवायु का भी उपार्जन करता है। नैरयिकायु का उपार्जन करता हुआ असंज्ञी जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग की आयु का उपार्जन (बन्ध) कर लेता है। तिर्यंचयोनिक-आयुष्य का उपार्जन करता हुआ वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त का और उष्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग का उपार्जन . करता है। इसी प्रकार मनुष्यायु एवं देवायु का उपार्जन भी नैरयिकायु के समान कहना चाहिए। एयस्स णं भंते! जेरइय असण्णि आउयस्स जाव देव असण्णि आउयस्स य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? - गोयमा! सव्वत्थोवे देव असण्णि आउए, मणुय असण्णि आउए असंखिज गुणा, तिरिक्ख जोणिय असण्णि आउए असंखिज गुणा, णेरइय असण्णि आउए असंखिज गुणा ॥५६८॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! इस नैरयिक-असंज्ञी आयु यावत् देव-असंज्ञी आयु में से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़ा देव-असंज्ञी-आयु है, उससे मनुष्य-असंज्ञी आयु असंख्यात गुणा अधिक है, उससे तिर्यंचयोनिक असंज्ञी आयु असंख्यात गुणा अधिक है और उससे भी नैरयिक असंज्ञी आयु असंख्यात गुणा अधिक है। नोट - भगवती सूत्र शतक चौबीस उद्देशक २ से ११ की टीका में असंज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय के देवगति में (भवनपति, वाणव्यन्तर) जाने पर वहाँ पर उनको एक करोड़ पूर्व जितना ही उत्कृष्ट आयु प्राप्त होता है। असंज्ञी जीव शुभ गति का आयु बन्ध कम स्थिति का करता है तथा अशुभ गति का आयु बन्ध अधिक स्थिति का करता है। ऐसा प्रज्ञापना सूत्र पद २३ उद्देशक २ (अबाधा काल के थोकड़े) से स्पष्ट होता है। अतः देवगति में असंज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय उत्पन्न होवे तो वह यहाँ पर जितनी उसकी उत्कृष्ट स्थिति होती है उससे अधिक स्थिति देवगति में प्राप्त नहीं करता है। अतः देव असंज्ञी आयुष्य करोड़ पूर्व जितना मानना ही उचित एवं संगत प्रतीत होता है। शास्त्रकारों ने संक्षेप करने की दृष्टि से सबका आयुष्य "पल्योपम का असंख्यातवां भाग" बताया है परन्तु उपरोक्त अल्पबहुत्व को देखते हुए आगे आगे का संज्ञी आयुष्य क्रमशः असंख्य असंख्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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