Book Title: Pragnapana Sutra Part 03
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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के किल्विषियों का ही ग्रहण किया गया हो सकता है। इस अपेक्षा से सौधर्म कल्प का उपपात संभव हो सकता है।
इन बोलों की पृच्छा से निकलने वाले फलितार्थ ( मन्तव्य ) -
१. आन्तरिक योग्यता के बिना भी बाह्य आचरण (प्ररूपणा, स्पर्शना) शुद्ध हो तथा स्वलिङ्गी हो तो ऐसे जीव चाहे वे मिथ्यादृष्टि (भव्य और अभव्य ) हो वे जीव ग्रैवेयक देवों तक उत्पन्न हो सकते हैं। इससे “जैन लिङ्ग धारण करने वाले का भी महत्त्व मालूम पडता है।" यह पहले एवं चौदहवें के साधक के लिए दिये गये निर्णय से फलित होता है। (दर्शन व्यापन्नक = समकित वमन किये हुए) ।
२. आन्तरिक योग्यतापूर्वक शुद्ध संयम का पालन करने वाला सर्वार्थ सिद्ध देवलोक तक जा सकता है । किल्विषियों को दर्शन बिराधक कहा जाता है। अर्थात् श्रद्धा से भ्रष्ट - निह्नव साधु किल्विषी है।
३. मूल गुण विराधक - साधु - पहले देवलोक तक जाता है । उत्तरगुण विराधक १२ वें देवलोक तक जा सकता है। [आभियोगिक भी विराधक (उत्तरगुणविराधक) होते हैं ।] द्रौपदी सुकुमालिका के भव में उत्तरंगुणविराधक होने से काल करके दूसरे देवलोक में गई ।
प्रज्ञापना सूत्र
४. संयम के गुणस्थानों (छट्टे आदि) तथा संयमासंयम (पांचवें गुणस्थान) में काल करने वाला विराधक हो या अविराधक, वह देवलोक में ही उत्पन्न होता है ।
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असंज्ञी - आयुष्य प्ररूपणा
कवि णं भंते! असण्णिआउए पण्णत्ते ?
गोयमा ! चउव्विहे असण्णिआउए पण्णत्ते । तंजहा - णेरइब असण्णि आउए जाव देव असण्ण आउए ।
कठिन शब्दार्थ - असण्णि आउए असंज्ञी का आयुष्य ।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! असंज्ञी - आयुष्य कितने प्रकार का कहा गया है ?
उत्तर - हे गौतम! असंज्ञी - आयुष्य चार प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है - नैरयिकअसंज्ञी - आयुष्य से लेकर देव असंज्ञी आयुष्य तक ।
असण्णी णं भंते! जीवे किं णेरइयाउयं पकरेइ जाव देवाउयं पकरेइ ?
गोमा ! रइयाउयं पकरेइ जाव देवाउयं पकरेइ । णेरड्याउं पकरेमाणे जहणेणं दस वाससहस्साइं, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखिज्जइभागं पकरेइ । तिरिक्ख जोणियाउयं पकरेमाणे जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखिज्जइ भागं पकरेड। `एवं मणुस्साउयं पि । देवाउयं जहा णेरइयाउयं ।
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