Book Title: Pragnapana Sutra Part 03
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रज्ञापना सूत्र
आभिणिबोहिय णाणी णं पुच्छा? गोयमा! एवं चेव।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! आभिनिबोधिक ज्ञानी आभिनिबोधिक ज्ञानी के रूप में कितने काल तक रहता है ?
उत्तर - हे गौतम! सामान्य ज्ञानी के विषय में जैसा कहा है इसी प्रकार इसके विषय में भी समझ लेना चाहिए।
एवं सुयणाणी वि। भावार्थ - इसी प्रकार श्रुतज्ञानी का भी कालमान समझ लेना चाहिए।
ओहिणाणी वि एवं चेव, णवरं जहण्णेणं एगं समयं।।
भावार्थ - अवधिज्ञांनी का कालमान भी इसी प्रकार है, विशेषता यह है कि वह जघन्य एक समय तक ही अवधिज्ञानी के रूप में रहता है।
विवेचन - अवधिज्ञानी का जघन्य कालमान एक समय का कहा है अन्तर्मुहूर्त का नहीं, क्योंकि विभंगज्ञानी कोई तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य या देव जब सम्यक्त्व प्राप्त करता है तो उसका विभंगज्ञान अवधिज्ञान में बदल जाता है किन्तु देव के च्यवन के कारण और अन्य जीव (नैरयिक, तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य) की मृत्यु होने पर या अन्य कारणों से अनन्तर समय में ही जब वह अवधिज्ञान नष्ट हो जाता है तब उसका अवस्थान एक समय तक रहता है। उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक छासठ सागरोपम की कही गयी है जो अप्रतिपाती अवधिज्ञान सहित दो बार विजय आदि विमानों में जाने की अपेक्षा या तीन बार अच्युत देवलोक में जाने की अपेक्षा समझनी चाहिए।
मणपज्जव णाणी णं भंते! मणपजव णाणित्ति कालओ केवच्चिरं होड? गोयमा! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं देसणा पव्वकोडी।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! मनःपर्यवज्ञानी कितने काल तक निरन्तर मन:पर्यवज्ञानी के रूप में रहता है?
उत्तर - हे गौतम! मनःपर्यवज्ञानी जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि (करोड़पूर्व) तक सतत मनःपर्यवज्ञानी पर्याय में रहता है।
विवेचन - मनःपर्यवज्ञानी जघन्य से एक समय तक रहता है। अप्रमत्त गुणस्थान में वर्तमान किसी संयत को मन:पर्यवज्ञान उत्पन्न होता है और अप्रमत्त अवस्था में ही मन:पर्यवज्ञान उत्पन्न होने के दूसरे समय में उसकी मृत्यु हो जाती है तब वह मनःपर्यव ज्ञानी एक समय तक ही मनःपर्यवज्ञानी रूप में रहता है। उत्कृष्ट स्थिति कुछ कम पूर्व कोटि वर्ष की कही गयी है क्योंकि इसके बाद संयम नहीं होने से मनःपर्यवज्ञान का भी अभाव हो जाता है।
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