Book Title: Pragnapana Sutra Part 03
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अठारहवाँ कायस्थिति पद - वेद द्वार
पुरिसवेदए णं भंते! पुरिसवेदए त्ति कालओ केवच्चिई होइ ?
गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सागरोवम सयपुहुत्तं साइरेगं । भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पुरुषवेदक जीव पुरुषवेदक रूप में लगातार कितने काल तक रहता है ?
उत्तर
हे गौतम! पुरुष वेदक जीव जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक सागरोपम शत-पृथक्त्व तक वह पुरुषवेदक रूप में रहता है।
विवेचन - पुरुषवेदी की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक शत सागरोपम पृथक्त्व कही गयी है। जब कोई जीव अन्य वेद वाले जीवों से निकल कर पुरुष वेद में उत्पन्न होकर वहाँ अन्तर्मुहूर्त्त पर्यन्त अपना सर्वायुष्य पूर्ण कर अन्य गति में अन्यवेदी में उत्पन्न हो तब पुरुष वेद की अंतर्मुहूर्त्त की जघन्य स्थिति घटित होती है । उत्कृष्ट स्थिति तो स्पष्ट है ।
णपुंसग वेदए णं भंते! णपुंसग वेदए त्ति पुच्छा ?
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गोयमा! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं वणस्सइ कालो ।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! नपुंसक वेदक लगातार कितने काल तक नपुंसक वेदक पर्याय युक्त बना रहता है ?
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उत्तर हे गौतम! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल पर्यन्त नपुंसक वेदक लगातार नपुंसक वेदक रूप में रहता है।
विवेचन - नपुंसक वेद सूत्र में जघन्य एक समय की कायस्थिति स्त्रीवेद के अनुसार समझनी चाहिए और उत्कृष्ट स्थिति वनस्पतिकाल समझना चाहिए। वनस्पतिकाल का परिमाण पूर्व चुका है।
अवेयए णं भंते! अवेयए त्ति पुच्छा ?
गोयमा ! अवेयर दुविहे पण्णत्ते । तंजहा - साइए वा अपज्जवसिए, साइए वा सपज्जवसिए । तत्थ णं जे से साइए सपज्जवसिए से जहणणेणं एगं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं ॥ दारं ६ ॥ ५३८ ॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! अवेदक, अवेदक रूप में कितने काल तक रहता है ? हे गौतम! अवेदक दो प्रकार के कहे गए हैं, वे इस प्रकार हैं
उत्तर
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१. सादि
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