Book Title: Pragnapana Sutra Part 03
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अठारहवाँ कायस्थिति पद - वेद द्वार
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१. प्रथमादेश से - कोई जीव करोड़ पूर्व की आयुष्य वाली मनुष्य स्त्रियों से या तिर्यच स्त्रियों में पांच छह भव करके ईशान कल्प में ५५ पल्योपम की उत्कृष्ट स्थिति वाली अपरिगृहीता देवियों में देवी रूप में उत्पन्न हो और आयु का क्षय होने पर वहाँ से च्यव कर पुनः करोड पूर्व आयुष्य वाली मनुष्य स्त्री में या तियेच स्त्री रूप में उत्पन्न हो उसके पश्चात् पुनः दूसरी बार ईशान कल्प में ५५ पल्योपम की उत्कृष्ट स्थिति वाली अपरिगृहीता देवियों में देवीरूप में उत्पन्न हो तो उसके बाद उसे स्त्रीवेद के अलावा दूसरे वेद की प्राप्ति होती है। इस प्रकार पूर्वकोटी पृथक्त्व अधिक एक सौ दस पल्योपम की स्त्रीवेद की उत्कृष्ट कायस्थिति सिद्ध होती है।
२. द्वितीय आदेश से - कोई जीव करोड़ पूर्व की आयुष्य वाली मनुष्य स्त्री या तिर्यंच स्त्री में पांच छह भव करके पूर्वोक्तानुसार ईशान देवलोक में दो बार उत्कृष्ट स्थिति वाली देवियों में उत्पन्न हो वह भी परिगृहीता देवियों में ही उत्पन्न हो, अपरिगृहीता देवियों में नहीं तो स्त्री वेदी की उत्कृष्ट काय स्थिति पूर्व कोटि पृथक्त्व अधिक अठारह पल्योपम की सिद्ध होती है।
३. तृतीय आदेश से - कोई जीव सौधर्म देव लोक में सात पल्योपम की उत्कृष्ट आयुष्य वाली परिगृहीता देवियों में दो बार उत्पन्न हो तो तृतीय अपेक्षा से पूर्व कोटी पृथक्त्व अधिक चौदह पल्योपम की स्त्रीवेद की काय स्थिति होती है। . . ४. चतुर्थ आदेश से - कोई जीव सौधर्म देवलोक में पचास पल्योपम की उत्कृष्ट आयुष्य वाली अपरिगृहीता देवियों में पूर्वोक्तानुसार दो बार देवी रूप में उत्पन्न हो तो स्त्रीवेदी की उत्कृष्ट कायस्थिति पूर्वकोटी पृथक्त्व अधिक सौ पल्योपम की सिद्ध हो जाती है। . ५. पंचम आदेश से - अनेक भवों में भ्रमण करते हुए स्त्रीवेद की उत्कृष्ट स्थिति का विचार करें. तो पूर्वकोटी पृथक्त्व अधिक पल्योपम पृथक्त्व की स्थिति होती है इससे अधिक नहीं, क्योंकि करोड़ पूर्व की आयुष्य वाली मनुष्य या तिथंच स्त्री में सात भव करके आठवें भव में देवकुरु आदि क्षेत्रों में तीन पल्योपम वाली स्त्रियों में स्त्रीरूप से उत्पन्न हो और वहाँ से काल करके सौधर्म देवलोक में उत्कृष्ट तीन पल्योपम स्थिति वाली देवियों में देवी रूप से उत्पन्न हो तो उसके बाद अवश्य ही वह जीव दूसरे वेद को प्राप्त हो जाता है। इस अपेक्षा से स्त्रीवेदी की उत्कृष्ट कायस्थिति पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक पल्योपम पृथक्त्व सिद्ध हो जाती है।
स्त्रीवेद की कायस्थिति पांच प्रकार की बतलाई गयी है- इसका कारण पूर्वो से प्रज्ञापना सूत्र के नि!हण समय में विद्यमान आचार्यों में परस्पर अपेक्षा भेद से पांच प्रकार के मत थे। अत: प्रज्ञापना सूत्र को निबद्ध करते समय पांचों मतों को ज्यों के त्यों रख दिये। टीकाकार तो इन आदेशों को "आर्य श्याम" द्वारा प्ररूपित ही मानते हैं।
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