Book Title: Pragnapana Sutra Part 03
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रज्ञापना सूत्र
भवों को मिलाने से भी संख्यात महीने ही होते हैं इसीलिए चउरिन्द्रिय की उत्कृष्ट काय स्थिति संख्यात मास कही गई है।
पंचिंदिय पजत्तए णं भंते! पंचिंदिय पजत्तएत्ति कालओ केवच्चिरं होइ? ... गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सागरोवम सयपुहुत्तं॥ दारं ३॥५३४॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! पंचेन्द्रिय-पर्याप्तक, पंचेन्द्रिय-पर्याप्तक रूप में कितने काल तक रहता है?
उत्तर - हे गौतम! पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट सौ पृथक्त्व (नौ सौ) सागरोपमों तक पंचेन्द्रियपर्याप्तक पर्याय में रहता है। ॥ तृतीयद्वार॥३॥ ...
. . ४. काय द्वार सकाइए णं भंते! सकाइएत्ति कालओ केवच्चिरं होइ?
गोयमा! सकाइए दुविहे पण्णत्ते। तंजहा - अणाइए वा अपज्जवसिए, अणाइए वा सपजवसिए।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! सकायिक जीव सकायिक रूप में कितने काल तक रहता है ? :
उत्तर - हे गौतम! सकायिक दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं - १. अनादि अनन्त और २. अनादि-सान्त।
विवेचन - जो काय सहित हो वह सकायिक कहलाता है। काय-शरीर के पांच भेद हैं - १. औदारिक २. वैक्रिय ३. आहारक ४. तैजस और ५. कार्मण। किन्तु यहाँ काय शब्द से तैजस और कार्मण शरीर ही समझना क्योंकि ये दोनों शरीर संसार पर्यन्त निरन्तर होते हैं। यदि ऐसा नहीं माने तो विग्रह गति में वर्तते हुए और शरीर पर्याप्ति से अपर्याप्त जीव के इन दो शरीरों के अलावा शरीर नहीं होने से वे अकायिक कहलाएंगे फलस्वरूप मूल सूत्र में कथित सकायिक के दो भेद घटित नहीं होंगे। मूल में सकायिक के दो भेद कहे गये हैं - १. अनादि अपर्यवसित और २. अनादि सपर्यवसित। इसमें जो जीव संसार का अन्त नहीं करते हैं वे अनादि अनंत हैं क्योंकि उनकी काय-तैजस कार्मण शरीर निरन्तर होने से उनका कभी व्यवच्छेद (अभाव) नहीं होता। जो जीव मोक्ष प्राप्त करेंगे वे अनादि सान्त हैं क्योंकि मोक्ष अवस्था में जीव इन शरीरों से सर्वथा रहित हो जाता है।
पुढविक्काइए णं पुच्छा?
गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं असंखिज्जकालं, असंखिजाओ उस्सप्पिणि ओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ असंखिजा लोगा।
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