Book Title: Pragnapana Sutra Part 03
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रज्ञापना सूत्र
तसकाइय पज्जत्तए णं पुच्छा ?
गोयमा! जहणणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं साइरेगं ॥ ५३५ ॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! सकायिक-पर्याप्तक कितने काल तक त्रसकायिक पर्याय में बना रहता है ?
उत्तर - हे गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक शतसागरोपम - पृथक्त्व तक वह पर्याप्त त्रसकायिक रूप में रहता है।
सुहुमे णं भंते! सुहुमेत्ति कालओ केवच्चिरं होइ ?
गोयमा ! जहणणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं असंखिज्ज कालं, असंखिजाओ उस्सप्पिणि ओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ असंखिज्जा लोगा ।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! सूक्ष्म जीव कितने काल तक सूक्ष्म रूप में रहता है ? उत्तर - हे गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त तक और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक अर्थात् काल से असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणियों तक और क्षेत्र से असंख्यात लोक तक सूक्ष्म जीव सूक्ष्मपर्याय में बना रहता है।
सुहुम पुंढविक्काइए, सुहुम आउकाइए, सुहुम तेडकाइए सुहुम वाउकाइए, सुहुम वणस्सइकाइए सुहुम णिगोदे वि जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं असंखिज्जं कालं, असंखिज्जाओ उस्सप्पिणि ओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ असंखिज्जा लोगा ।
भावार्थ - इसी प्रकार सूक्ष्म पृथ्वीकायिक, सूक्ष्म अप्कायिक, सूक्ष्म तेजस्कायिक, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक एवं सूक्ष्म निगोद भी जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक अर्थात् काल से असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणियों तक एवं क्षेत्र से असंख्यात लोक तक ये स्वस्वपर्याय में बने रहते हैं ।
सुमे णं भंते! अपज्जतए त्ति पुच्छा ?
गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं ।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! सूक्ष्म अपर्याप्तक, सूक्ष्म अपर्याप्तक रूप में कितने काल तक लगातार रहता है ?
उत्तर - हे गौतम! सूक्ष्म अपर्याप्तक, सूक्ष्म अपर्याप्तक रूप में जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त्त तक और • उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त्त तक ही रहता है।
पुढविकाइय आउकाइय तेउकाइय वाउकाइय वणस्सइकाइयाण य एवं चेव ।
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