Book Title: Pragnapana Sutra Part 03
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अठारहवाँ कायस्थिति पद - गति द्वार
२३९
गोयमा! जहण्णेणं दस वाससहस्साइं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं। भावार्थ-प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक नारकत्व रूप (नारकपर्याय) में कितने काल तक रहता है ?
उत्तर - हे गौतम! नैरयिक जघन्य दस हजार वर्ष तक, उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम तक नैरयिक पर्याय से युक्त रहता है।
विवेचन - नैरयिक की भव स्थिति, जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम ही होती है एवं वही उसकी कायस्थिति है क्योंकि नैरयिक भव का स्वभाव ही ऐसा है कि नरक से निकला हुआ जीव अगले भव में पुनः नरक में उत्पन्न नहीं होता है।
तिरिक्खजोणिए णं भंते! तिरिक्खजोणिए त्ति कालओ केवच्चिरं होइ?
गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं, अणंताओ उस्सप्पिणि ओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अणंता लोगा असंखिजा पोग्गल परियट्टा, ते णं पोग्गलपरियट्टा आवलियाए असंखिजइभागो। .. भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! तिर्यंचयोनिक कितने काल तक तिर्यंच योनिक रूप में रहता है ?
उत्तर - हे गौतम! तिर्यंच जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक तिर्यंच रूप में रहता है। काल से अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल तक, क्षेत्र से अनन्त लोक, असंख्यात पुद्गलपरावर्तनों तक तिर्यंच तिर्यंच ही बना रहता है। वे पुद्गल परावर्तन आवलिका के असंख्यातवें भाग जितने समझने चाहिए।
विवेचन - जब कोई देव, मनुष्य या नैरयिक तिर्यंच रूप में उत्पन्न होता है और वहाँ अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त रह कर फिर देव, मनुष्य या नैरयिक भव में जन्म ले लेता है उस अवस्था में जघन्य कायस्थिति अंतर्मुहूर्त की होती है तथा जो तिर्यंच, तिर्यंच भव को त्याग कर लगातार तिर्यंच भव में ही उत्पन्न होते रहते हैं, बीच में किसी अन्य भव में उत्पन्न नहीं होते, वे अनन्तकाल तक तिर्यंच ही बने रहते हैं। उस अनन्तकाल की प्ररूपणा काल और क्षेत्र से यों दो प्रकार से कही गयी है - काल से अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी तथा क्षेत्र की अपेक्षा अनन्त लोक की अर्थात् प्रति समय एक-एक आकाश प्रदेश निकालते हुए जितने काल में लोक प्रमाण अनन्त आकाश खंड खाली हों उतने काल की यानी अनन्त लोकाकाश प्रमाण आकाश खंडों के प्रदेश प्रमाण समयों की। काल की अपेक्षा असंख्यात पुद्गल परावर्तन आवलिका के असंख्यातवें भाग प्रमाण अर्थात् आवलिका के असंख्यातवें भाग में जितने समय होते हैं उतने पुद्गल परावर्तन की तिर्यंच की कायस्थिति है। तिर्यंच की यह कायस्थिति वनस्पति की अपेक्षा समझनी चाहिए। .. यहाँ पर तिर्यंच की कायस्थिति असंख्यात पुद्गल परावर्तनों की बताई गयी है। इसमें क्षेत्र पुद्गल
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