Book Title: Pragnapana Sutra Part 03
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रज्ञापना सूत्र moooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooo
गई हैं - द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय। भावेन्द्रिय भी दो प्रकार के कही गई हैं - १. लब्धि इन्द्रिय और २. उपयोग इन्द्रिय। यहाँ लब्धि रूप भावेन्द्रिय समझना क्योंकि वह विग्रह गति में भी होती है और इन्द्रिय पर्याप्तक में भी होती है तभी उपरोक्त उत्तर घटित हो सकता है। जो संसारी हैं वे अवश्य सेन्द्रिय होते हैं और संसार अनादि है इसलिए सेन्द्रिय अनादि है। उनमें भी जो कभी सिद्ध नहीं होंगे वे अभव्य जीव अनादि अनन्त होते हैं क्योंकि उनके सेन्द्रियपने का कभी अभाव नहीं होता। जो सिद्ध होंगे ऐसे भव्य जीवों की अपेक्षा अनादि सान्त कहा है क्योंकि मुक्ति अवस्था में सेन्द्रियपने पर्याय का अभाव होता है।
एगिदिए णं भंते! एगिदिए त्ति कालओ केवच्चिरं होइ? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमहत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं वणस्सइ कालो। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! एकेन्द्रिय जीव एकेन्द्रिय रूप में कितने काल तक रहता है ?
उत्तर - हे गौतम! एकेन्द्रिय जीव जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल-वनस्पतिकाल पर्यन्त एकेन्द्रिय रूप में रहता है।
विवेचन - उत्कृष्ट वनस्पतिकाल जितना अनंत काल कहा है। वनस्पतिकाल इस प्रकार अभझना-काल से अनन्त उत्सर्पिणी अवसर्पिणी, क्षेत्र से अनंत लोक अथवा असंख्यात पुद्गल परावर्तन काल जानना और वे असंख्यात पुद्गल परावर्तन आवलिका के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं।
बेइंदिए णं भंते! बेइंदिए त्ति कालओ केवच्चिर होइ? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं संखिज कालं। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! बेइन्द्रिय जीव बेइन्द्रिय रूप में कितने काल तक रहता है ?
उत्तर - हे गौतम! बेइन्द्रिय जीव जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात काल तक बेइन्द्रिय रूप में रहता है।
एवं तेइंदियचउरिदिए वि। .
भावार्थ - इसी प्रकार तेइन्द्रिय और चउरिन्द्रिय की तेइन्द्रिय और चउरिन्द्रिय रूप में अवस्थिति के विषय में समझना चाहिए।
विवेचन - तीन विकलेन्द्रियों की उत्कृष्ट काय-स्थिति संख्यात काल की कही गयी है। संख्यात काल अर्थात् संख्यात हजार वर्ष समझना क्योंकि 'विगलिंदियाण य वाससहस्सा संखिज्जा' विकलेन्द्रियों के संख्यात हजार वर्ष होते हैं-ऐसा शास्त्र वचन है।
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