Book Title: Pragnapana Sutra Part 03
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अठारहवाँ कायस्थिति पद - इन्द्रिय द्वार
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भावार्थ - पर्याप्तक मनुष्य और मनुष्यणी की कायस्थिति के विषय में भी इसी प्रकार समझना चाहिए।
देवपजत्तए जहा णेरइयपजत्तए।
भावार्थ - पर्याप्तक देव की कायस्थिति के विषय में पर्याप्तक नैरयिक की कायस्थिति के समान समझना चाहिए।
देवीपजत्तिया णं भंते! देवीपज्जत्तिय त्ति कालओ केवच्चिर होइ?
गोयमा! जहण्णेणं दस. वाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई, उक्कोसेणं पणपण्णं पलिओवमाइं अंतोमुहूत्तूणाई॥ दारं २॥५३३॥ ___ भावार्थ-प्रश्न - हे भगवन्! पर्याप्तक देवी, पर्याप्तक देवी के रूप में कितने काल तक रहती
... उत्तर - हे गौतम! पर्याप्तक देवी जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम पचपन पल्योपम तक पर्याप्तक देवी-पर्याय में रहती है। ॥ द्वितीय द्वार ॥ २॥
विवेचन - यहाँ पर गति द्वार में जो पर्याप्तक और अपर्याप्तक की कायस्थिति बतलाई गयी है वहाँ पर एक भव की अपेक्षा ये ही कायस्थिति होने से उसे 'करण पर्याप्त और करण अपर्याप्तक' की अपेक्षा समझना चाहिए। आहार, शरीर और इन्द्रिय इन तीन पर्याप्तियों के पूर्ण होने के पूर्व तक सभी जीव 'करण अपर्याप्तक' कहलाते हैं। इसके बाद इन्द्रिय पर्याप्ति के पूर्ण होने पर वे जीव 'करण पर्याप्तक' कहलाते हैं।
३. इंद्रिय द्वार सइंदिए णं भंते! सइंदिएत्ति कालओ केवच्चिरं होइ? .
गोयमा! सईदिए दुविहे पण्णत्ते। तंजहा - अणाइए वा अपजवसिए, अणाइए वा सपजवसिए।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! सेन्द्रिय (इन्द्रिय सहित) जीव सेन्द्रिय रूप में कितने काल तक रहता है?
उत्तर - हे गौतम! सेन्द्रिय जीव दो प्रकार के कहे गये हैं - १. अनादि-अनन्त और २. अनादि-सान्त।
विवेचन - जो जीव इन्द्रिय सहित होते हैं वे सेन्द्रिय कहलाते हैं। इन्द्रिय दो प्रकार की कही
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