Book Title: Pragnapana Sutra Part 03
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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य। तत्थ णं जे ते अणंतरोववण्णगा ते णं ण जाणंति, ण पासंति, आहारेंति । तत्थ णं जे ते परंपरोववण्णगा ते दुविहा पण्णत्ता । तंजहा - पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य । तत्थ णं जे ते अपज्जत्तगा ते णं ण जाणंति, ण पासंति, आहारेंति । तत्थ णं जे ते पज्जत्तगा ते दुविहा पण्णत्ता । तंजहा - उवउत्ता य अणुवउत्ता य । तत्थ णं जे ते अणुवउत्ता ते णं जाणंति, ण पासंति, आहारेंति, तत्थ णं जे ते उवउत्ता ते णं जाणंति पासंति आहारेंति, से एएणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ - ' अत्थेगइया जाणंति जाव अत्थेगड्या आहारेंति ॥ ४४२ ॥
प्रज्ञापना सूत्र
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! क्या वैमानिक देव उन निर्जरा पुद्गलों को जानते हैं, देखते हैं और आहार करते हैं ?
उत्तर - हे गौतम! जैसे मनुष्यों से सम्बन्धित वक्तव्यता कही है, उसी प्रकार वैमानिकों की वक्तव्यता समझनी चाहिए। विशेष यह है कि वैमानिक दो प्रकार के कहे गए हैं, वे इस प्रकार है-. मायी - मिध्यादृष्टि - उपपन्नक और अमायी- सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक। उनमें से जो मायी - मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक होते हैं, वे उन्हें नहीं जानते, नहीं देखते किन्तु आहार करते हैं । उनमें से जो अमायी- सम्यग्दृष्टि-: उपपन्नक हैं, वे दो प्रकार के कहे गए हैं, वे इस प्रकार हैं- अनन्तरोपपन्नक और परम्परोपपन्नक। उनमें से जो अनन्तरोपपन्नक - अनन्तर - उत्पन्न हैं, वे नहीं जानते है और नहीं देखते हैं, किन्तु आहार करते हैं । उनमें से जो परम्परोपपन्नक हैं, वे दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा- पर्याप्तक और अपर्याप्तक । उनमें से जो अपर्याप्त हैं, वे नहीं जानते हैं और नहीं देखते हैं, किन्तु आहार करते हैं। उनमें जो पर्याप्तक हैं, वेदो प्रकार के कहे गए हैं- उपयोगयुक्त और उपयोग रहित । जो उपयोग रहित हैं, वे नहीं जानते हैं और नहीं देखते हैं किन्तु आहार करते हैं। उनमें से जो उपयोग युक्त हैं, वे जानते हैं, देखते हैं और आहार करते हैं। इस कारण से हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि कोई-कोई नहीं जानते हैं यावत् कोईकोई आहार करते हैं।
विवेचन जो मायी ( सकषायी) होने के साथ साथ मिथ्यादृष्टि हों, वे मायी मिथ्यादृष्टि कहलाते हैं । जो वैमानिक देव मायी मिथ्यादृष्टि रूप में उत्पन्न हुए हैं वे मायी मिथ्यादृष्टि उपपन्नक कहलाते हैं। इनसे विपरीत जो हों वे अमायी सम्यग् दृष्टि उपपन्नक कहलाते हैं। आगमानुसार मायी मिथ्यादृष्टि उपपन्नक नौवें ग्रैवेयक तक के देवों में पाये जा सकते हैं। यद्यपि ग्रैवेयकों और उनके पहले के देवलोकों में सम्यग्दृष्टि देव होते हैं किन्तु उनका अवधिज्ञान इतना विशेष नहीं होता है कि वे उन निर्जरा पुद्गलों को जान देख सके इसलिए उन्हें भी मायी मिथ्यादृष्टि उपपन्नकों के अन्तर्गत ही समझा जाता है । जो अमायी सम्यग्दृष्टि उपपन्नक हैं वे अनुत्तर विमानवासी देव हैं।
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