Book Title: Pragnapana Sutra Part 03
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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Dooran
प्रज्ञापना सूत्र
उत्तर - हाँ, गौतम! शुक्ल लेश्या पद्म लेश्या को पा कर उसके स्वरूप में परिणत नहीं होती, इत्यादि सब पूर्ववत् कहना चाहिए।
प्रश्न - हे भगवन्! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि शुक्ल लेश्या पद्म लेश्या को प्राप्त होकर यावत् उसके स्वरूप में तथा उसके वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श रूप में परिणत नहीं होती? .
उत्तर - हे गौतम! आकारभावमात्र से अथवा प्रतिबिम्बमात्र से यावत् वह शुक्ल लेश्या पद्म लेश्या जैसी प्रतीत होती है वह वास्तव में शुक्ल लेश्या ही है, निश्चय ही यह पाम लेश्या नहीं होती। शुक्ल लेश्या वहाँ स्व-स्वरूप में रहती हुई अपकर्ष हीनभाव को प्राप्त होती है। इस कारण से हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि यावत् शुक्ल लेश्या पद्म लेश्या को प्राप्त होकर उसके स्वरूप में परिणत नहीं होती।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में कृष्ण आदि लेश्या के परिणाम भाव का दूसरी लेश्या में परिणत होने का निषेध किया गया है। - शंका - चतुर्थ उद्देशक में तो कृष्ण आदि लेश्याओं का नील आदि लेश्याओं के स्वरूप तथा उनके वर्ण, गंध, रस स्पर्श रूप में परिणत होने का कहा है जबकि यहाँ उसका निषेध किया गया है। ऐसा पूर्वापर विरोधी कथन क्यों कहा गया है ?
समाधान - चतुर्थ उद्देशक में परिणमन का जो विधान किया गया है वह तिर्यंचों और मनुष्यों की अपेक्षा से है जबकि इस पांचवें उद्देशक में परिणमन का जो निषेध किया गया है वह देवों और नैरयिकों की अपेक्षा से है। इस प्रकार दोनों कथन विभिन्न अपेक्षाओं से होने के कारण पूर्वापर विरोधी नहीं है। देव और नैरयिक अपने पूर्व भव के अंतिम अन्तर्मुहूर्त से लेकर आगामी भव के प्रथम अंतर्मुहूर्त तक उसी लेश्या में अवस्थित होते हैं अर्थात् जो लेश्या पूर्वभव के अंतिम अन्तर्मुहूर्त में थी वही लेश्या वर्तमान देवभव या नैरयिक भव में भी कायम रहती है और आगामी भव के प्रथम अंतर्मुहूर्त में भी रहती है। इस कारण देवों और नैरयिकों के कृष्ण लेश्या आदि के द्रव्यों का परस्पर संपर्क होने पर भी वे एक दूसरे को अपने स्वरूप में परिणत नहीं करते। उनमें लेश्या का परिणमन आकार भाव मात्र से ही अथवा प्रतिबिम्ब मात्र से ही होता है। जैसे दर्पण आदि पर प्रतिबिम्ब पड़ने पर दर्पण आदि उस वस्तु जैसे प्रतीत होने लगते हैं। दर्पण अपने आप में दर्पण ही रहता है, उसमें प्रतिबिम्बित होने वाली वस्तु नहीं बन जाता। इसी प्रकार कृष्ण लेश्या के साथ नील लेश्या के द्रव्यों का संपर्क होने पर कृष्ण लेश्या पर नील लेश्या के द्रव्यों का प्रतिबिम्ब पड़ता है तो वह नील लेश्या सी प्रतीत होती है
किन्तु वास्तव में वह नील लेश्या में परिणत नहीं होती, वह कृष्ण लेश्या ही बनी रहती है। क्योंकि .. उसने अपने स्वरूप का त्याग नहीं किया है। कृष्ण लेश्या से नील लेश्या विशुद्ध होने के कारण कृष्ण
लेश्या अपने स्वरूप में स्थित रहती हुई नील लेश्या के आकार भाव मात्र या प्रतिबिम्ब मात्र को धारण
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