Book Title: Pragnapana Sutra Part 03
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
सत्तरहवाँ लेश्या पद-पांचवां उद्देशक - लेश्याओं के परिणाम भाव
२२९
एएणडेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-णीललेस्सा काउलेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव भुजो-भुजो परिणमइ'।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! क्या नील लेश्या, कापोत लेश्या को प्राप्त होकर न तो उसके स्वरूप में यावत् न ही उसके वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श रूप में बारबार परिणत होती हैं ?
उत्तर - हाँ, गौतम! नील लेश्या कापोत लेश्या को प्राप्त होकर न उसके स्वरूप में यावत् न ही उसके वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श रूप में बारबार परिणत होती है।
प्रश्न - हे भगवन्! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि नील लेश्या, कापोत लेश्या को प्राप्त होकर न उसके स्वरूप में, यावत् पुनःपुनः परिणत होती है?
उत्तर - हे गौतम! वह नील लेश्या आकारभावमात्र से ही अथवा प्रतिबिम्बमात्र से कापोतलेश्या होती है, वास्तव में वह नील लेश्या ही रहती है, वास्तव में वह कापोत लेश्या नहीं हो जाती। वहाँ रही हुई वह नील लेश्या घटती-बढ़ती रहती है। इसी कारण से हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि नील लेश्या कापोत लेश्या को प्राप्त होकर न तो तद्रूप में यावत् न ही उसके वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श रूप में बारबार परिणत होती है।
एवं काउलेस्सा तेउलेस्सं पप्प, तेउलेस्सा पम्हलेस्सं पप्प, पम्हलेस्सा सुक्कलेस्सं पप्प।
भावार्थ - इसी प्रकार कापोत लेश्या तेजो लेश्या को प्राप्त होकर, तेजो लेश्या पद्म लेश्या को प्राप्त होकर और पद्म लेश्या शुक्ल लेश्या को प्राप्त होकर उसी के स्वरूप में, अर्थात् वर्ण-गन्ध-रसस्पर्श रूप में परिणत नहीं होती, ऐसा पूर्वोक्त युक्तिपूर्वक समझना चाहिए।
से णूणं भंते! सुक्कलेस्सा पम्हलेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव परिणमइ? हंता गोयमा सुक्कलेस्सा तं चेव। से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-'सुक्कलेस्सा जाव णो परिणमइ?'
गोयमा! आगार भाव मायाए वा जाव सुक्कलेस्सा णं सा, णो खलु सा पम्हलेस्सा, तत्थ गया ओसक्कड़, से तेणद्वेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-'जाव णो परिणमइ' ॥५२९॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! क्या शुक्ल लेश्या, पद्म लेश्या को प्राप्त होकर उसके स्वरूप में यावत् उसके वर्ण-गंध-रस-स्पर्श रूप में पुनः पुनः परिणत नहीं होती?
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org