Book Title: Pragnapana Sutra Part 03
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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सोलहवां प्रयोग पद - गति प्रपात के भेद-प्रभेद
बहुत, आहारक मिश्र का एक, कार्मण का एक ६. औदारिक मिश्र का एक, आहारक के बहुत, आहारक मिश्र का एक, कार्मण के बहुत ७. औदारिक मिश्र का एक, आहारक के बहुत, आहारक मिश्र के बहुत, कार्मण का एक ८. औदारिक मिश्र का एक, आहारक के बहुत, आहारक मिश्र के बहुत, कार्मण के बहुत ९. औदारिक मिश्र के बहुत, आहारक का एक, आहारक मिश्र का एक, कार्मण का एक १०. औदारिक मिश्र के बहुत, आहारक का एक, आहारक मिश्र का एक, कार्मण के बहुत ११. औदारिक मिश्र के बहुत, आहारक का एक, आहारक मिश्र के बहुत, कार्मण का एक १२. औदारिक मिश्र के बहुत, आहारक का एक, आहारक मिश्र के बहुत, कार्मण के बहुत १३. औदारिक मिश्र के बहुत, आहारक के बहुत, आहारक मिश्र का एक, कार्मण का एक १४. औदारिक मिश्र के बहुत, आहारक के बहुत, आहारक मिश्र का एक, कार्मण के बहुत १५. औदारिक मिश्र के बहुत, आहारक के बहुत, आहारक मिश्र के बहुत, कार्मण का एक १६. औदारिक मिश्र के बहुत, आहारक के बहुत, आहारक मिश्र के बहुत, कार्मण के बहुत ।
इस प्रकार असंयोगी ८, दो संयोगी २४, तीन संयोगी ३२ और चार संयोगी १६ ये सब मिल कर अस्सी भंग होते हैं।
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प्रस्तुत सूत्र में इन ८० भंगों द्वारा मनुष्यों में पाये जाने वाले प्रयोगों की प्ररूपणा की गयी है। 'मनुष्यों में चार मन के, चार वचन के, औदारिक योग और वैक्रिय द्विक रूप ११ पद सदैव बहुवचन युक्त होते हैं एवं शाश्वत पाये जाते हैं। .:
शंका - वैक्रिय मिश्र शरीर काय प्रयोग वाले हमेशा कैसे पाये जाते हैं ?
समाधान- विद्याधरों, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव एवं प्रतिवासुदेवों आदि की अपेक्षा वैक्रिय -: मिश्र शरीर. काय प्रयोग वाले सदैव पाये जाते हैं क्योंकि विद्याधरों आदि और इनके अलावा कितनेक मिथ्यादृष्टि आदि वैक्रिय लब्धि वाले अन्य अन्य अभिप्राय से सदैव विकुर्वणा करते पाये जाते हैं। इस संबंध में मूल टीकाकार कहते हैं- "मनुष्या वैक्रिय मिश्र शरीर प्रयोगिणः, सदैव विद्याधरादीनां विकुर्वणा भावाद् " | मनुष्यों में औदारिकमिश्र शरीरकाय प्रयोग वाले और कार्मण शरीर काय प्रयोग वाले कदाचित् सर्वथा नहीं होते, क्योंकि उनका उपपात विरह काल बारह मुहूर्त का होता है । आहारक शरीर का प्रयोगी और आहारक मिश्र शरीरकाय प्रयोगी भी सदैव नहीं पाये जाते, कभी-कभी ही होते हैं । अतः औदारिक मिश्र आदि चार प्रयोगों के अभाव में शेष ११ पदों का बहुवचन रूप एक भंग शाश्वत पाया जाता है।
गति प्रपात के भेद - प्रभेद
कइविहे णं भंते! गइप्पवाए पण्णत्ते ?
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