Book Title: Pragnapana Sutra Part 03
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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सत्तरहवाँ लेश्या पद-प्रथम उद्देशक - सातवां द्वार
सम्यग्मिथ्यादृष्टि । उनमें से जो सम्यग्दृष्टि हैं, उनके चार क्रियाएँ होती हैं, वे इस प्रकार हैं १. आरम्भिकी, २. पारिग्रहिकी ३. मायाप्रत्यया और ४. अप्रत्याख्यानक्रिया । जो मिथ्यादृष्टि हैं तथा जो संम्यग्मिथ्यादृष्टि हैं, उनके नियत ( निश्चित रूप से) पांच क्रियाएँ होती हैं १. आरम्भिकी २. पारिग्रहिकी ३. मायाप्रत्यया ४. अप्रत्याख्यान क्रिया और ५. मिथ्यादर्शनप्रत्यया । हे गौतम! इस कारण
से ऐसा कहा जाता है कि सभी नैरयिक समान क्रिया वाले नहीं होते ।
विवेचन - आरम्भिकी आदि क्रियाओं का स्वरूप इस प्रकार है
१. आरंभिकी- पृथ्वीकाय आदि छह काय रूप जीव तथा अजीव के आरम्भ से लगने वाली क्रिया को आरंभिकी क्रिया कहते हैं।
रइयाणं भंते! सव्वे समाउया ? गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे ।
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२. पारिग्रहिकी - मूर्च्छा-ममत्व भाव से लगने वाली क्रिया पारिग्रहिकी है ।
३. माया प्रत्यया - सरलता का भाव न होना- कुटिलता का होना माया है। क्रोध, मान, माया और लोभ के निमित्त से लगने वाली क्रिया माया प्रत्यया है ।
४. अप्रत्याख्यान क्रिया- अप्रत्याख्यान अर्थात् थोड़ा सा भी विरति परिणाम न होने रूप क्रिया अप्रत्याख्यान क्रिया है ।
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५. मिथ्यादर्शन प्रत्यया - जीव को अजीव, अजीव को जीव, धर्म को अधर्म, अधर्म को धर्म, साधु को असाधु, असाधु को साधु समझना इत्यादि विपरीत श्रद्धान से तथा तत्त्व में अश्रद्धान आदि से लगने वाली क्रिया मिथ्यादर्शन प्रत्यया क्रिया है ।
सम्यग्दृष्टि नैरयिकको उपरोक्त पांच क्रियाओं में से प्रथम चार और मिथ्यादृष्टि तथा मिश्रदृष्टि नैरयिक को उपरोक्त पांचों क्रियाएं होती है। अतः सभी नैरयिक समान क्रिया वाले नहीं होते हैं ।
सातवां द्वार
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सेकेणणं भंते! एवं वुच्चइ० ?
गोयमा! णेरड्या चउव्विहा पण्णत्ता । तंजहा - अत्थेगइया समाज्या समोववण्णगा, अत्थेगइया समाउया विसमोववण्णगा, अत्थेगइया विसमाउया समोववण्णगा, अत्थेगइया विसमाउया विसमोववण्णगा, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ - 'णेरड्या णो सव्वे समाउया, णो सव्वे समोववण्णगा ॥ ४८० ॥'
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कठिन शब्दार्थ- समाउया समान आयुष्य वाले, समोववण्णगा - समान उत्पत्ति वाले, एक साथ उत्पन्न होने वाले ।
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