Book Title: Pragnapana Sutra Part 03
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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सत्तरहवाँ लेश्या पद-चतुर्थ उद्देशक - परिणाम द्वार
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उसी लेश्या के परिणाम वाला होकर उत्पन्न होता है। तथा वही मनुष्य या तिर्यंच उसी भव में रहता हुआ जब कृष्ण लेश्या में परिणत होकर नील लेश्या के रूप में परिणत होता है तब भी कृष्ण लेश्या के द्रव्य तत्काल ग्रहण किए हुए नील लेश्या के द्रव्यों के संबंध से नील लेश्या के द्रव्यों में परिवर्तित हो जाते हैं। इसी बात को सूत्रकार ने दृष्टान्त देकर स्पष्ट किया है। जैसे दूध, छाछ के संयोग से अपना मीठा स्वाद छोड़ कर खट्टा हो जाता है अथवा श्वेत वस्त्र मजीठ आदि रंग के संयोग से मजीठ आदि के वर्ण का हो जाता है। उसी प्रकार कृष्ण लेश्या नील लेश्या को पाकर नील लेश्या रूप में एवं नील लेश्या के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श रूप में बार-बार परिणत होती है।
इसी प्रकार नील लेश्या कापोत लेश्या रूप में, कापोत लेश्या तेजो लेश्या रूप में, तेजो लेश्या पद्म । लेश्या रूप में और पद्म लेश्या शुक्ल लेश्या रूप में बार बार परिणत होती है।
से णूणं भंते! कण्हलेस्सा णीललेस्सं काउलेस्सं तेउलेस्सं पम्हलेस्सं सुक्कलेस्सं पप्प तारूवत्ताए तावण्णत्ताए तागंधत्ताए तारसत्ताए ताफासत्ताए भुजो-भुजो परिणमइ? - हंता गोयमा! कण्हलेस्सा णीललेस्सं पप्प जाव सुक्कलेस्सं पप्प तारूवत्ताए तावण्णत्ताए तागंधत्ताए तारसत्ताए ताफासत्ताए भुजो-भुजो परिणमइ।
से केणद्वेणं भंते! एवं वुच्चइ-'कण्हलेस्सा णीललेस्सं जाव सुक्कलेस्सं पप्प तारूवत्ताए जाव भुजो-भुजो परिणमइ?'
गोयमा! से जहाणामए वेरुलियमणी सिया कण्हसुत्तए वा णीलसुत्तए वा लोहियसुत्तए वा हालिहसुत्तए वा सुक्किल्लसुत्तए वा आइए समाणे तारूवत्ताए जाव भुजो-भुजो परिणमइ।
से तेणद्वेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-कण्हलेस्सा णीललेस्सं जाव सुक्कलेस्सं पप्प तारूवत्ताए जाव भुजो-भुजो परिणमइ॥५०६॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! कृष्ण लेश्या क्या नील लेश्या, कापोत लेश्या, तेजो लेश्या, पद्म लेश्या और शुक्ल लेश्या को प्राप्त होकर उन्हीं के स्व रूप में, उन्हीं के वर्ण रूप में, उन्हीं के गन्ध रूप में, उन्हीं के रस रूप में, उन्हीं के स्पर्श रूप में पुनः पुनः परिणत होती है ? ___उत्तर - हाँ, गौतम! कृष्ण लेश्या, नील लेश्या को प्राप्त होकर यावत् शुक्ल लेश्या को प्राप्त हो कर उन्हीं के स्वरूप में यावत् उनमें से किसी भी लेश्या के वर्णादि रूप में पुनः पुनः परिणत होती है।
प्रश्न - हे भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि कृष्ण लेश्या, नील लेश्या को यावत् शुक्ल लेश्या को प्राप्त होकर उन्हीं के स्वरूप में यावत् उन्हीं के वर्णादि रूप में पुनः पुनः परिणत हो जाती है?
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