Book Title: Pragnapana Sutra Part 03
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
२१०
प्रज्ञापना सूत्र
OoOOOppopomoppppopopuppppopodcarodpoooooooooomnp
आकाशखण्ड) हो, काला अशोक हो, काला कनेर हो, अथवा काला बन्धुजीवक (विशिष्ट वृक्ष) हो, इनके समान कृष्ण लेश्या काले वर्ण की है।
प्रश्न - हे भगवन्! क्या कृष्ण लेश्या वास्तव में इसी रूप की होती हैं?
उत्तर - हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है। कृष्ण लेश्या इससे भी अनिष्टतर है, अत्यंत अकान्त अत्यंत अप्रिय, अत्यंत अमनोज्ञ और अत्यंत अमनाम वर्ण वाली कही गई है।
णीललेस्सा णं भंते! केरिसिया वण्णेणं पण्णत्ता?
गोयमा! से जहाणामए भिंगए इ वा भिंगपत्ते इ वा चासे इ वा चासपिच्छए इ वा सुए इ वा सुयपिच्छे इ वा सामा इ वा वणराई इ वा उच्चंतए इ वा पारेवयगीवा इ वा मोरगीवा इ वा हलहरवसणे इ वा अयसिकुसुमे इ वा वणकुसुमे इ वा अंजण केसिया कुसुमे इ वा णीलुप्पले इ वा णीलासोए इ वा णीलकणवीरए इ वा णीलबंधुजीवए इवा। . .
भवेयारूवे?
गोयमा! णो इणढे समढे० एत्तो जाव अमणामयरिया चेव वण्णणं पण्णत्ता ॥५०९॥
कठिन शब्दार्थ - भिंगए - भुंग पक्षी, चासपिच्छए - चाष पक्षी की पंख, सुए - शुक (तोता), सामाइ- श्यामा (प्रियंगुलता), णीलासोए - नील अशोक वृक्ष, उच्चतए - उच्चंतक (दांत का रंग)
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! नीललेश्या वर्ण से कैसी होती है ?
उत्तर - हे गौतम! जैसे कोई भुंग पक्षी हो, शृंगपत्र हो, अथवा चाष पक्षी (नीलकण्ठ) हो, या चाषपक्षी की पांख हो, या तोता हो, तोते की पांख हो, श्यामा (प्रियंगुलता) हो, अथवा वनराजि हो, या उच्चन्तक (दन्तराग-दांत रंगने का द्रव्य) हो, या कबूतर की ग्रीवा हो, अथवा मोर की ग्रीवा हो, या हलधर (बलदेव) का नील वस्त्र हो, या अलसी का फूल हो, अथवा वण (बाण) वृक्ष का फूल हो, या अंजनकेसिका कुसुम हो, नीलकमल हो अथवा नील अशोक हो, नीला कनेर हो अथवा नीला बन्धुजीवक वृक्ष हो, इनके समान नील लेश्या नीले वर्ण की होती है।
प्रश्न - हे भगवन्! क्या नील लेश्या वास्तव में इसी रूप की होती है?
उत्तर - हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है। नील लेश्या इससे भी अनिष्टतर, अधिक अकान्त, अधिक अप्रिय, अधिक अमनोज्ञ और अधिक अमनाम वर्ण वाली कही गई है।
काउलेस्सा णं भंते! केरिसिया वण्णेणं पण्णत्ता?
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org