Book Title: Pragnapana Sutra Part 03
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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पन्द्रहवां इन्द्रिय पद-द्वितीय उद्देशक - अनेक जीवों की अपेक्षा
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गोयमा! णथि।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! सर्वार्थसिद्ध देवों की सर्वार्थसिद्धदेवत्व रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हुई हैं ?
उत्तर - हे गौतम! सर्वार्थसिद्ध देवों की सर्वार्थसिद्ध देवत्व रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ नहीं हुई हैं। केवइया बद्धेल्लगा? गोयमा! संखिज्जा। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? उत्तर - हे गौतम! बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ संख्यात हैं। केवइया पुरेक्खडा? गोयमा! णत्थि ११॥४५७॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! उनकी पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी होंगी? उत्तर - हे गौतम! उनकी पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ नहीं होंगी।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में अनेक जीवों में परस्पर की अपेक्षा अतीत, बद्ध और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों का कथन किया गया है जो इस प्रकार हैं - . बहुत नारकी के नैरपिकों ने नारकी से लेकर यावत् नवग्रैवेयक देवता के रूप में तथा औदारिक के दस दंडक रूप में द्रव्येन्द्रियाँ अतीत काल में अनन्त की, वर्तमान में स्व स्थान की अपेक्षा असंख्यात हैं, परस्थान की अपेक्षा नहीं हैं और भविष्य में अनन्त होंगी। बहुत नारकी के नैरयिकों ने पांच अनुत्तर विमान के देव रूप में द्रव्येन्द्रियाँ अतीत काल में नहीं की, वर्तमान में नहीं हैं और भविष्य में असंख्यात . होंगी।
बहुतं से भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी, पांच स्थावर तीन विकलेन्द्रिय, असंज्ञी तिथंच पंचेन्द्रिय, संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय और असंज्ञी मनुष्य के जीवों ने नारकी से लेकर यावत् नवग्रैवेयक देवता और औदारिक के दस दंडक के रूप में द्रव्येन्द्रियाँ अतीत में अनन्त की, वर्तमान में स्वस्थान की अपेक्षा असंख्यात हैं ® परस्थान की अपेक्षा नहीं हैं, भविष्य में अनन्त होंगी। बहुत से भवनपति, वाणव्यन्तर,
* मूल पाठ में वनस्पतिकाय में स्वस्थान की अपेक्षा अनंत द्रव्येन्द्रियाँ बताई हैं, लेकिन उस पाठ में लिपिदोष की संभावना लगती है, क्योंकि पहले अनेक जीवों की अपेक्षा (दूसरे द्वार में) वनस्पतिकाय में असंख्यात ही द्रव्येन्द्रियाँ आई है, आगे भाव इन्द्रियों के विवेचन में अनेक जीवों में परस्पर की अपेक्षा (तीसरे द्वार में) आया है कि "द्रव्येन्द्रियों की तरह ही कहना लेकिन वनस्पति काय में अनन्ता कहना" अगर आगमकार को यहाँ असंख्यात अपेक्षित होता तो वहाँ सिर्फ भोलावन ही दे देते, "णवरं अणंता" नहीं बोलते। पन्नवणा सूत्र के १२ वें पद में सभी जीवों के बद्ध औदारिक शरीर असंख्यात ही बताये हैं
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