Book Title: Pragnapana Sutra Part 03
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रज्ञापना सूत्र
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विवेचन - प्रश्न - स्पृष्ट और अस्पृष्ट शब्दों क्या आशय है?
उत्तर - 'स्पृश्यन्ते इति स्पृष्टाः' जो स्पर्श करे अर्थात् जो शरीर को छुए उसको स्पृष्ट कहते हैं। जैसे शरीर पर रेत लग जाती है उसी तरह इन्द्रिय के साथ विषय का स्पर्श हो तो वह स्पृष्ट कहलाता है। जिस इन्द्रिय का अपने विषय के साथ स्पर्श नहीं होता, वह अस्पृष्ट विषय कहलाता है। जैसे - श्रोत्रेन्द्रिय के साथ जिन शब्दों का स्पर्श हुआ हो, वे शब्द (विषय) स्पृष्ट कहलाते हैं किन्तु चक्षुरिन्द्रिय के साथ जिन रूपों का स्पर्श न हुआ हो, ऐसे रूप (विषय) अस्पृष्ट कहलाते हैं। प्रस्तुत सूत्र में बताया है कि श्रोत्रेन्दिय स्पृष्ट शब्दों को ही सुनती है। अस्पृष्ट को नहीं।
पुट्ठाइं भंते! रूवाइं पासइ, अपुट्ठाई रूवाइं पासइ? . गोयमा! णो पुट्ठाई रूवाइं पासइ, अपुट्ठाई रूवाइं पासइ।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! चक्षुरिन्द्रिय स्पृष्ट अर्थात् जिन रूपों का चक्षु (आँख) के साथ स्पर्श हुआ हो रूपों को देखती है, अथवा अस्पृष्ट रूपों को देखती है?
उत्तर - हे गौतम! चक्षुरिन्द्रिय अस्पृष्ट रूपों को देखती है, स्पृष्ट रूपों को नहीं देखती।
इसका आशय यह है कि आँख से दूर रहे हुए पदार्थों को ही आँख देखती है किन्तु आँख के साथ तिनका आदि स्पर्श कर जाय (आँख में कचरा आदि गिर जाय) तो उसको आँख नहीं । देख पाती।
पुट्ठाई भंते! गंधाइं अग्घाइ, अपुट्ठाई गंधाइं अग्घाइ?
गोयमा! पुट्ठाई गंधाई अग्घाइ, णो अपुट्ठाई गंधाइं अग्घाइ। एवं रसाणं वि फासाणं वि, णवरं रसाइं अस्साएइ, फासाइं पडिसंवेदेइ त्ति अभिलावो कायव्वो।
कठिन शब्दार्थ - अस्साएइ - आस्वादन करती है, पडिसंवेदेइ - अनुभव करती है।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! घ्राणेन्द्रिय स्पृष्ट गन्धों को सूंघती है अथवा अस्पृष्ट गन्धों को सूंघती है?
उत्तर - हे गौतम! घ्राणेन्द्रिय स्पृष्ट गन्धों को सूंघती है, अस्पृष्ट गन्धों को नहीं सूंघती। इस प्रकार घ्राणेन्द्रिय की तरह जिह्वेन्द्रिय द्वारा रसों के और स्पर्शनेन्द्रिय द्वारा स्पर्शों के ग्रहण करने के विषय में भी समझना चाहिए। विशेष यह है कि जिह्वेन्द्रिय रसों का आस्वादन करती (चखती) है
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