Book Title: Pragnapana Sutra Part 03
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
पण्णरसमं इंदियपयं-पढमो उद्देसो पन्द्रहवां इन्द्रिय पद-प्रथम उद्देशक
उक्खेओ (उत्क्षेप-उत्थानिका)-अवतरणिका - इस पन्द्रहवें पद का नाम 'इन्द्रिय पद' है। इन्द्रिय शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गयी है - संस्कृत में 'इदि परमैश्वर्ये' धातु है। इससे इन्द्रिय शब्द बनता है।
'इन्दती परमैश्वर्यम् भुनत्ति इति इन्द्रः' .
अर्थ - जो परम ऐश्वर्य को भोगता है उसको इन्द्र कहते हैं। इन्द्र के चिह्न से जो युक्त है उसे इन्द्रिय कहते हैं।
इन्द्रिय संसारी आत्मा को पहचानने के लिए लिंग है, इसी से संसारी आत्मा की प्रतीति होती है। इस पद में इन्द्रियों के सम्बन्ध में सभी पहलुओं से विश्लेषण किया गया है। इसके दो उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में प्रारम्भ में निरूपणीय २४ द्वारों का कथन किया गया है। द्वितीय उद्देशक में १२ द्वारों के माध्यम से इन्द्रियों की प्ररूपणा की गयी है।
यदि किसी विषय का विशेष लम्बा वर्णन होता है तो शास्त्रकार अलग-अलग विभाग करके कथन करते हैं। उस विभाग की शास्त्रीय भाषा में 'उद्देशक' कहते हैं। इस पन्द्रहवें पद में इन्द्रियों का कुछ विस्तृत वर्णन होने से इसके दो उद्देशक (विभाग) कहे गये हैं।
चौदहवें कषाय पद में बन्ध का प्रधान कारण होने से विशेष रूप से कषाय परिणाम का प्रतिपादन किया गया और इसके बाद इन्द्रिय वाले को ही लेश्यादि परिणाम का सद्भाव होता है। अतः विशेष रूप से इन्द्रिय परिणाम का निरूपण करने के लिए इस पद का प्रारम्भ किया जाता है। जिसका प्रथम सूत्र इस प्रकार है -
चौबीस द्वार संठाणं बाहल्लं पोहत्तं (पुहुत्तं) कइपएस ओगाढे। अप्पाबहु पुट्ठ पविट्ठ विसय अणगार आहारे॥१॥ अहाय असी य मणी उडुपाणे * तेल्ल फाणिय वसा य। . कंबल थूणा थिग्गल दीवोदहि लोगालोगे य॥२॥ * पाठान्तर - कुण्ड पाणे (अर्थ - कुण्ड में रहा हुआ पानी।)
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org