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रुपी भेद : जीव के १४, पुण्य के ४२, पाप के ८२, आश्रव के ४२ और बन्ध के ४, इस प्रकार ये १८८ भेद रुपी द्रव्य के है। ___यहाँ संवर, निर्जरा तथा मोक्ष, ये तीन तत्त्व आत्मा का सहज स्वभाव होने से अरुपी है परन्तु जीव को यहाँ रूपी मानकर उसके भेदों को रुपी में समाविष्ट किया गया है । यद्यपि जीव अरुपी है तथापि जीव के चौदह भेद, जिनका विश्लेषण आगे की गाथाओं में होगा, कर्मसहित संसारी जीवों के होने से इसकी गिनती रुपी में की गयी है। पुण्य-पाप-आश्रव तथा बंध, ये भी रुपी है क्योंकि कर्म पुद्गल रूपी है।
प्रस्तुत गाथा में उल्लिखित नौ तत्त्वों के २७६ भेदों का विशद वर्णन क्रमश: आगे की गाथाओं में किया जायेगा।
इन नौ तत्त्वों के २७६ भेदों में जीव, अजीव के, रूपी - अरुपी के तथा हेय, ज्ञेय, उपादेय के भेद कितने हैं, उसका वर्णन कोष्टक के द्वारा प्रस्तुत है।
२७६ भेदों में से | २७६ भेदों में से २७६ भेदों में से । तत्त्व जीव | अजीव रुपी अरुपी | हेय ज्ञेय उपादेय १) जीव । १४ । ० | १४ | ० ० | १४ | ० |२) अजीव । ० । १४ । ४ । १० ।० | १४ | ० |३) पुण्य । ० । ४२ । ४२ | ० ० ० | ४२ । |४) पाप । ० । ८२ | ८२ । ० ८२ । ० ० 1५) आश्रव । ० । ४२ । ४२ | ० । ४२ / ० ०
६) संवर । ५७ | ० ० | ५७ | ० ० | ५७ |७) निर्जरा | १२ | ० ० | १२ | ० । ० १२ ८) बंध । ० । ४ । ४ । ० | ४ | ० ० ९) मोक्ष | ९ | ० । ० | ९ | ०।० ९ कुल ९२ | १८४ | १८८८८१२८/२८] १२०
संसारी जीवों के विभिन्न अपेक्षाकृत भेद
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गाथा
एगविह दुविह तिविहा, चउव्विहा पंच छव्विहा जीवा । चेयण तस इयरेहि, वेयगइकरणकाएहि ॥३॥
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श्री नवतत्त्व प्रकरण