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१४ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ श्री छब्बालाल जी महाराज ने ४२ दिन का दीर्घ तप आप श्री के सुखद सान्निध्य में ही सम्पन्न किया था। इसी प्रकार सराहनीय जप-तप की गंगा प्रवाहमान रही। सैकड़ों-हजारों जीवों को अभयदान मिला । कई स्थानों पर विघटनात्मक तत्व सक्रिय थे, तोड़-फोड़ में लगे हुए थे। पर, आप श्री की जादूभरी वाणी एवं मधुर स्वभाव के कारण वहाँ स्नेह-संगठन की प्रतिष्ठा हुई। कई व्यसनी मानव व्यसनातीत बने। इस क्रमानुसार जिनवाणी का उद्घोष करते हुए एकदा चरित्रनायक श्री का उज्जैन से इन्दौर पदार्पण हुआ। कहा है- “सव्वेसि पाणाणं, सव्वेसि भूयाणं, सव्वेसि जीवाणं, सव्वेसि सत्ताणं, अणुवीइ भिक्खू, धम्ममाइक्खिज्जा" (आचारांग सूत्र)।
श्रमण एवं श्रमणी वर्ग आहार-पानी आदि समस्त अभिलाषाओं का परित्याग करके केवल धर्म और परमार्थ की दृष्टि से ही उन भव्य जीवों को प्रतिबोधित करें। श्रमण-जीवन की यही बहुत बड़ी विशेषता है। उनका समूचा जीवन परोपकार के लिए सतत गतिशील रहता है। विश्व के सर्वोदय में वे अपना भी सर्वोदय मानते हैं। विश्वबन्धुत्व की मंगल भावना का अधिकाधिक प्रचार-प्रसार हो, जन-जीवन में सम्यक् बोध का विस्तार हो, इस मंतव्य को साकार करने के लिए जैन भिक्षु-भिक्षुणी वर्ग ग्रामानुग्राम परिभ्रमण किया करते हैं। सज्जनात्माओं का एक स्थान पर स्नेहमिलन होना स्व-पर के लिए सुख-शान्ति का द्योतक माना है। तदनुसार इन्दौर में चरित्रनायक श्री, पं० श्री शंकरलाल जी महाराज, छोटे नन्दलाल जी महाराज, चौथ ऋषि जी महाराज एवं धूलचन्द जी महाराज आदि अनेक मुनियों का समागम हुआ। संयुक्त प्रभावशाली प्रवचनों का तत्कालीन जनता पर गहरा असर हुआ। कई बड़े-बड़े अधिकारी भी आकर्षित हुए। जीवदया का सुन्दर कार्यक्रम बना और तीन रियासतों (इन्दौर-उज्जैन-धार) के अधिकारियों की ओर से अमुक सीमा तक हिंसा बन्दी की घोषणा तत्काल करदी गईं।
चरित्रनायक श्री जी के ज्ञान-गभित प्रवचनों से प्रभावित होकर इन्दौर के महामन्त्री हीराचन्द जी कोठारी एवं इन्दौर नरेश तुकोजी राव ने दर्शन किये। काफी समय तक “जीव-दया" विषय पर वार्तालाप हुए। श्रमणोचित कठोरतम आचार से तुकोजी राव काफी प्रभावित भी हुए। गुरुदेव के मुखारविन्द से कुछ नियम भी ग्रहण किये।
इस प्रकार अहिंसा, अनेकांत एवं अपरिग्रह की त्रिवेणी प्रवाहित करते हुए एकदा चरित्रनायक का नाथद्वारा में पदार्पण हुआ। यहाँ पर स्थानीय समाज दो टुकड़ों में विभाजित था। फूट के कटु प्रभाव से सामाजिक वातावरण कलुषित दृष्टिगोचर हुआ। विद्वेषपूर्ण विघटनात्मक वातावरण को देखकर आपको संतोष नहीं हुआ, तब आपने अपने ओजस्वी प्रवचनों में फूट से होने वाली हानि पर प्रकाश डालते हुए कहा कि"जहां फूट का बाजार गरम रहता है, वहाँ झूठ-लूट-माथाकूट एवं राग-द्वेष की अभिवृद्धि सम्भव है। वहाँ सत्य हकीकत पर पर्दा डाला जाता और मिथ्या-प्रलाप का नारा
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