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५. रौद्रध्यान की सामग्री प्रमाद एवं कषायें हैं । आचार्य श्री ने अपाय विचयादि धर्मध्यान के परिभाषाओं सहित इस भेदों का कथन किया है । ६. यहां अनित्यादि बारह भावनाओं के चिन्तवन करने को संस्थान विचय धर्म ध्यान बताया है । ७. ध्यानादि के भेद से धर्मध्यान ४ प्रकार का है। ६. बुद्धिमान तथा एकान्तवास में सदा सन्तुष्ट रहने बाला आत्मा धर्म ध्यान का ध्याता होता है । ६. इसी प्रकार शुक्लध्यान आदि का बहुत सुन्दर ढंग से वर्णन करके अन्त में तप की महिमा को बसाकर साधक को तपाचार पालन करने की प्रेरणा दी है। १०. इन्द्रिय लम्पटो. शक्तिहीन जो मनुष्य तपश्चरण नहीं करते उनकी बड़े कठोर शब्दों में आलोचना की है। कोर्याधार-१ बल वीर्य आदि को प्रकट करके जो संयमाचार का पालन करते हैं वह ही वीर्याचार है। २ बल एवं वीर्य शब्दों को परिभाषा का कथन करके प्राणी संयम एवं इन्द्रिय संयम के भेद करके प्राण संयम के २७ भेदों का परिभाषाओं सहित कथन किया, अन्त में पंचाचार की महिमा बताकर उसको पालन करने की प्रेरणा दी। ३. इस प्रकार ५२६ श्लोकों में अन्तिम चार प्राचारों का विस्तृत वर्णन करके यह छठा अधिकार पूर्ण किया।
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सातवां अधिकार
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१ प्राचार्य श्री ने १६६ श्लोकों में मुनियों के समाचार का वर्णन किया। मंगलाचरण करके समाचार का स्वरूप एवं प्रौधिक व पदविभागिक के भेद से समाचार के दो भेद किये हैं। २. भोषिक समाचार नाकारमादि १८ मेमों का स्वरूप पूर्वक वर्णन किया है। ३. पुन: उपसम्पत् समाचार के विनयादिक के ५ भेद का स्वरूप निर्देश किया। ४. तदनन्तर सूत्र उपसम्पत के तीन भेदों का स्वरूप घताया एवं पदविभागी समाचार का स्वरूप निर्देश किया। ५. पानम अभ्यास के लिये यदि दूसरे संघ में जाना हो तो अपने गुरू से शिष्य ३ बार, ५ बार, ७ बार पूछता है । ६. संघ से निकलना हो तो किसी मुनि को अकेला कभी नहीं निकलना चाहिये । ७. पुनः अहिता एवं हितार्थाधित विहार के इस प्रकार दो भेद किये । १. कैसे गुणों वाला मुनि एकल विहारी हो सकता है एवं कैसे माचार वाला मुनि एकल विहार न करें। ६. एकल विहार करने से ५ प्रकार की हानि व अनेक दोषों का वर्णन करके एकल विहार करने का निषेध किया है । १०. शिष्य को आगमादिक के अध्ययन हेतु कैसे संघ ( गुरुकुल ) में निवास करना चाहिये । ११. पंचम काल में एकन विहार करने का निषेध क्यों किया, इसका प्राचार्य ने अच्छे हेतुओं के द्वारा समाधान किया है। प्राचार्य श्री ने अनेक हेतुओं से एकल विहार करने का निषेध किया है।
१२. पुनः प्राचार्य के गुणों का निर्देश बहुत ही सुन्दर ढंग से किया है। १३. अभ्यागत मुनि प्राचार्य संघ में आता है तो वे परस्पर में किस प्रकार वात्सल्य भाव से व्यवहारिक कर्तव्य निभाते हैं।
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