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स्वाध्याय करने की प्रेरणा दी है। ५. किन शास्त्रों को काम शुद्धि पूर्वक पढ़ना चाहिये। ६. पंकसंग्रह. गोम्मटसारादि अन्य अन्य काल में भी पढ़े जा सकते हैं। दिनमाचार-सिद्धान्त शास्त्रों के परने के पूर्व एवं अन्त में उपवास अथवा पांच कामोत्सर्ग करने का कथन किया है । ७. उपक्षाचार के वर्णन में अन्य समाप्ति तक विकार एवं पौष्टिकता रहित आहार ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार ज्ञानाचार के पाठों अलों का वर्णन शास्त्र स्वाध्याय करने से पाठकगण समझ लेवें, विस्तार भय से नहीं लिखा । ८. ज्ञान से केवलज्ञान प्राप्त होता है। अत: विनयादिक के साथ ज्ञान के अभ्यास करने की प्रेरणा दी । ६. प्राचार्य श्री ने भनेको उदाहरणों के द्वारा कानालार की महत्ता प्रकट करके मोक्षार्थी को आगम अभ्यास को प्रेरणा दी।
चारित्राचार-१. १ कोटि से पांचों पापों का त्याग करना महानत है एवं रात्रिचर्या के दूषण बताकर छठं रात्रि भोजन त्याम ब्रतको रक्षा की प्रेरणा दी है । २. तदनन्तर तीन गुप्तियों का सरल सुबोध एवं विस्तृत वर्णन करके उसे पालने की प्रेरणा दी। ३. अप्रशस्त प्रणिधान को त्याग कर प्रशस्त प्रसिधान को धारण करने की प्रेरणा दी है। ४. जो मुनि ध्यान एवं आगम रूपी अमृत समुद्र में अपने मन को जैसे-जैसे लगाते वैसे-वसे मनोगस्ति की पूर्णता होती है। जो मुति अपने चंचल मन को बाह्य विषयों से रोकने में असमर्थ है उसके अन्य गुप्ति कैसे हो सकती है ? ६. मनोगुप्ति पालन करने के फल को बताकर उसे पालने की प्रेरणा दी है। ७. वाम्गुप्ति को पालने बाले मुनि को या तो नित्य मौन रहना चाहिये या शिष्यों को आगम पढ़ाना चाहिये अथवा करुणाबुद्धि से सज्जनों का अनुग्रह करने के लिये कभी-कभी धर्मोपदेश देना चाहिये । 5. मुनियों को प्राण त्याग का समय पाने पर भी व्रतादिक की निर्मलता एवं कारितजन्य प्राण घात के दोषों की निवृत्ति के लिये "तुम आओ, जाओ, प्रसन्न बैठो, यह कार्य शीघ्र करो" ऐसे वचन कभी नहीं बोलने चाहिये । ६. मौन व्रत ध्यान को प्रकट करने में दीपक के समान है। इत्यादिक रूप से मौन व्रत की महिमा बताकर उसे पालन करने की प्रेरणा दी है। १०. शरीर की चंचलता से अनेक प्रकार को हामि होती है । ११. ध्यान उत्पन्न करने में माता के समान काय गुप्ति पालन करने की प्रेरणा दी है।
१२. अन्त में चारित्र की महिमा बताकर आचार्य देव कहते हैं कि चारित्रके अभाव में उत्कृष्ट सम्यग्दर्शन, उत्कृष्ट ज्ञान मोक्ष प्राप्त कराने में समर्थ नहीं। १३. ज्ञान दर्शन को धारण करने वाला मुनि यदि चारित्र से भ्रष्ट है शिथिल है तो वह भी लङ्गड़े की भांति मोक्ष मार्ग में कभी गमन नहीं कर सकता । १४. प्रतः पारित की महिमा समझकर प्राणों के त्याग के समय भी सर्वोत्कृष्ट चारित्र को मलिन नहीं करने की प्रेरणा दी है। सपाचार-१. तपाचार का स्वरूप एवं उसके भेदों का शमम ही निर्वेक्ष किया है । २. अमपान तप के साकाँम. निराकाण दो भेद बताये । पुनः साकांस तपके ऋतकावली एवं निसकांश अप के भक्त प्रत्याख्यान सरहादिक बनेक भेद किये हैं। ३. जिनेन्द्र देव में
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