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. . एक मुक्त मामक मूलगुण--१. इसके स्वरूप को बतलाते हुए आचार्यों ने कहा है कि मुनिरोमा सूर्योदय के ३ धड़ो पश्चात् एवं सूर्यास्त के ३ घड़ो पहले तक योग्य काल में एक, दो अथवा तीन बहुर्व के भीतर तक आहार लेते हैं, ये एक भुक्त नामक मूलगुण है। २. पुन: प्राचार्य एक भक्त भोजन के पहरण से लाभ एवं इस मूलगुण के भंग होने से हानि का निर्देश किया है। ३. मुनि को तीव्र अपरादि के होने पर भी दूसरी बार जल ग्रहण नहीं करने की प्रेरणा दी है। ४. इस प्रकार मूलगुणों को महिमा बताते हुए कण्ठगत प्राण होने पर भी इसको भंग नहीं करने की प्रेरणा दी है । ५. उत्तरसुणों के लिए मूर्ख मुनि मूलगुणों का घात करते हैं वे मुक्ति कपी फल को प्राप्त नहीं कर सकते। ६. पुनः प्राचार्य ने उपसर्गादिक आने पर भी स्वप्न में भी मूलगुणों को नहीं छोड़ने की प्रेरणा दी है एवं अतिचारादिक नहीं लगाना चाहिये। ७. पुनः अतिचारादिक के स्वरूप का निर्देश करते हुये मूलगुण के फस को बतलाकर इस अधिकार को पूर्ण किया।
पंचम अधिकार १. दर्शनाचार-सम्पूर्ण जगत में जिनकी कीति फैल रही है ऐसे सकलकीति प्राचार्य ने पञ्याचार के वर्णन में २५२ श्लोकों द्वारा दर्शनाचार का वर्णन किया। २. पञ्चपरमेष्ठी को नमस्कार करके, कारण पूर्वक पंचाचार के निरूपण करने की प्रतिज्ञा की। ३. तदनन्तर पञ्चाचार के भेदों का नामोल्लेख गारो माद, सब प्रतिनं सुधि का कारण दर्शनाचार को कहा है। ४. तदनन्तर सम्यग्दर्शन के भेद एवं उनके स्वरूप का निर्देश किया। पुन: भाचार्य देव ने. शास्त्र, गुरु एवं धर्मका बहुत मार्मिक शब्दों में वर्णन किया है । ५. जिनेन्द्र देव के बताये हुए धर्मका श्रद्धानादिक करते हैं उन्हीं के सम्यग्दर्शन होता है । ६. पुनः जिन सप्त तत्वों के श्रद्धान से निर्मल सम्यग्दर्शन होता है, उनका विस्तृत वर्णन किया है । ७. जीव तत्व-जीव तत्व के स्वरूप निर्देश में संसारी जीवों का पञ्च स्थावरादि एवं स जीवों का वर्णन किया है । पुनः जीवों की योनि एवं कुल भेदों का कथन किया है। प्राचार्य श्री ने व्यवहार एवं निश्चयनय से जीवों का स्वरूप निर्देश करके अजीव तत्व का वर्णन किया । . अजीव तत्व-अजीप तत्व के निर्देश में पुद्गल द्रव्य के स्कन्धादिक भेद से चार भेद किये । पुनः पुद्गलादि द्रव्यों के उपकार आदि का कथन किया है।
९. प्रास्त्रव तस्व-आनय तत्व के भेद प्रभेदों का वर्णन किया । जो मुनि ध्यानादि द्वारा भास्रव को रोकने में असमर्थ हैं, उनके यम नियमादि सब व्यर्थ हैं। जो मुनि कर्मों के आसव को रोकने में असमर्थ हैं थे कर्मरूपी दुर्जय शत्रुओं को कैसे जीत सकते हैं। १०. बंध तस्व-बंध सरव का कथन करते हुये आचार्य कहते हैं जो मुनि महा तपश्चरण करके ध्यान रूपी शस्त्र से कर्म बन्ध को नाश करने में असमर्प है वह मुक्त नहीं हो सकता, वह तो संसार रूपी वन में भ्रमण करता ही रहता
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