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अचेलकरव मूलगुण-१. प्राचार्य श्री अचेलकत्व मूलगुण का स्वरूप निर्देश करते हुए बताते हैं कि जिमलिंग वीर पुरुष ही धारण करते हैं । विकारों को नष्ट करने में असमर्थ कायर पुरुष धारण नहीं कर सकते । २जो मुनि ब्रह्मचर्य वस्त्र से सुरक्षित हैं वे ही वास्तविक नग्न हैं। ३, कोपिन मात्र माचररए भी चिंता, व्याकुलता एवं अनेक अशुभ ध्यान का कारण है।
अस्मान प्रत का स्वरूप-१. आचार्य देव कहते हैं कि आत्म शुद्धता के लिये स्नानादि का त्याग करना एवं पसीनादि से युक्त शरीर धारण करना अस्नान नामक बल है। २. पुनः स्नान त्याग से लाभ एवं स्नान करने से हानि का वर्णन करते हुए अस्नान व्रत को धारण करने की प्रेरणा दी है। ३. जिसका अन्तःकरण पापों से मलिन है ऐसे मिथ्यावृष्टि की स्नान से शुद्धि नहीं होती है ।
भूमिशयन मलगुरण का स्वरूप-१. इस मूलगुण के स्वरूप का वर्णन करते हुए भूमिशयम से लाभ और कोमल शय्या पर सोने से हानि का वर्णन किया। २. कोमल शय्या पर सोने से ब्रह्मचर्य नष्ट हो जाता है। ३. कटिन आसन पर बैठने एवं सोने से निद्रा पर विजय होती है। समस्त पाप एवं अनर्थों का समुद्र इस निद्रा को अन्न-पान की मात्रा अत्यन्त कम करके इसको जीतना चाहिये। ४ जो निद्रा रूपी पिशाचनी को जीतने में असमर्थ है उसको ध्यान की सिद्धि नहीं होती है। ५. भुनियों को मेगादिक के होने पर भी दिन में निद्रा नहीं लेना चाहिये । ६. रात्रि के मध्य भाग में अन्तमुहूर्त तक हो निद्रा लेनी चाहिये। ७. कण्ठगत प्राण होने पर भी रात्रि के पहले एवं अन्तिम भाग (पहर ) में निद्रा नहीं लेना चाहिये । ८. अन्त में भूमिवायन नामक मूलगुण की महिमा बताकर इसे धारण करने की प्रेरणा दी है।
प्रदन्त धोधन मूलगुण-१. वैराग्य वृद्धि के लिये नखादि से दांतों के इकट्ठे मल को दूर नहीं करना ही अदन्त धावन मूलगुण है। २. दन्तधावन में हानि एवं प्रदन्त धावन में लाभ का वर्णन किया । ३. मुख प्रक्षालादि का दूर से त्याग करने की प्रेरणा दी है। ४. अन्त में अदन्तधावन मुलगुण को महिमा बतलाते हुए आचार्य ने उसको पालन करने की प्रेरणा दी है।
स्थिति भोजन नामक मूलगुरण-१. स्थिति भोजन नामक मूल गुण के स्वरूप का निर्देश करते हुए स्थिति भोजन करने से लाभ एवं बैठकर भोजन करने से हानि का निवेश किया है। २. करोड़ों व्याधियां होने पर भी एवं प्राणों का नाश होने पर भी मुनिराज को बैठकर भोजन नहीं करने की प्ररणा दी है। ३. मुनिराज को बैठकर कभी जल पानादि का ग्रहण नहीं करना चाहिये । ४. तीर्थङ्कर देंव १ वर्ष के उपवास के पश्चात् भी खड़े-खड़े ही माहार लेते हैं ऐसा कहते हुए अन्त में स्थिति भोजन की महिमा बतलाकर उसे पालन करने की प्रेरणा दी है।
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