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खण्डित होता है। वेला तेला आदि में जो पानी का त्याग न कर सके तो उसे उपए जल ग्रहण करना चाहिये । ६. मुनि को प्राणों का अन्त याने पर भी एक बार भोजन के पश्चात् जलादि महश नहीं करना चाहिये । ७. प्रत्याख्यान में चार प्रकार की शुद्धि रखने की प्रेरणा एवं उसका स्वरूप का पारना है १ ८. मारियमों हो पा करोड़ों उपसर्ग आने पर भी प्रत्याख्यान को भंग नहीं करना चाहिये । ६. अन्त में प्रत्याख्यान के पालन करने के गुण एवं उसको भंग करने के दूषण का बड़ा ही मार्मिक वर्णन किया है।
कायोत्सर्ग-१. आचार्य श्री कायोत्सर्ग का स्वरूप बताकर इसको अनन्त वीर्य का उत्पन्न करने वाला बतलाया है। २. नामादिक निक्षेप से भी छह भेद किय एवं इनका स्वरूप निर्देश किया है। (१) उस्थितोत्थित (२) उस्थितोपविष्ट (३) उपविष्टोथिस (४) उपविष्टोपविष्ट के भेद से कायोसर्ग के चार भेद किये हैं। ३. दो को शुभ व दो को अशुभ ध्यान बतलाते हुए अशुभ ध्यान के त्याग की प्रेरणा दी है। ४. पुन: कायोत्सर्ग करने वाले के निद्राजयी आदि अनेक मुरणों का वर्णन किया है। ५. चतुर पुरुष व्रतादिक में दोष लगने पर कायोत्सर्ग करते हैं। ६. पुनः कायोत्सर्ग के फल का वर्णन करते हुए आत्माथियों को कायोत्सर्ग करने को प्रेरणा दी है। ७. उत्कृष्ट एवं जघन्य कायोस्सर्ग के काल का वर्णन करते हुए प्रतिक्रमणादि में कितने कायोत्सर्म करना चाहिये उसका ऋमिक वर्णन किया। ८. बत्तीस दोषों से रहित धर्म ध्यानादि पूर्वक किया हुआ कायोत्सर्ग अनेक ऋद्धिरों का कारण होता है। ९, पुन: घोटकादि बत्तीस दोषों का स्वरूप सहित वर्णन किया एवं इन दोषों के स्याग की प्रेरणा दी। समर्थ अथवा असमर्थ सभी को कार्य सिद्धि के लिये कायोत्सर्ग करना चाहिये । १०. अन्त में प्राचार्य देव ने कायोत्सर्ग की महिमा का बहुत सुन्दर वर्णन किया। भावश्यक नाम की सार्थकता बताते हुए आवश्यकों की महिमा बताई है। ११. जो मुनि स्वाध्याय के लोभ से समस्त आवश्यक पूर्ण रूप से नहीं करता अथवा कम करता है उस पर मूर्खता सवार हो जाती है एवं उसके उभय लोक का सुख नष्ट हो जाता है। १२. अनेक उदाहरणों के द्वारा बिना आवश्यकों के कार्य सिद्धि का निषेध किया है अन्त में त्रियोग की शुद्धि पूर्वक प्रावश्यकों के पालने की प्रेरणा दी है। १३. मुनिराजों के १३ क्रियाओं में निषिद्धका एवं प्रासिका इन दो को ही मुख्य करके प्राचार्य श्री ने स्वरूप निर्देश किया है। १४. जिस मुनि के त्रियोग चंचल है, कषाय एवं ममत्व नहीं घटा है उसके निषिद्धिका शब्द नाम मात्र के लिये कहा है। १५ भोगादिक एवं ख्याति यादि की इच्छा रखने वाले के लिये आसिका शब्द नाम मात्र के लिये ही होता है ।
केशलौंच मूल गुरण का स्वरूप-१. बिना कलेश के बालों को उखाड़ना मुनियों का केशभौंच नामका मूलगुण है । २. केशलौंच का उत्तमादि कासों की अपेक्षा वर्णन करते हुए आचार्य कहते है कि करोड़ों रोग हो जाने पर भी ५ महिने में केशलोंध नहीं करना चाहिये । ३. केशलोंच करने से साभ एवं मुण्डन करवाने से हानि का स्पष्ट वर्णन किया है।
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