________________
समान जिह्वा इन्द्रिय को जीतने में असमर्थ हैं वे वाम रूपी योद्धा को कभी नहीं जीत सकते । आचार्य श्री ने मिष्ट रस की इच्छा रखने वाले साधुओं को कड़े शब्दों में भर्त्सना दो है ।
स्पर्शन इन्द्रिय निरोष-आचार्य श्री ने स्पर्श इंद्रिय के १. विजेता को कोमल आसन, विद्यौना पर मोना, बठना एवं कोमल रेशमी वस्त्रों का स्पर्श करना भी ब्रह्मचर्य नाशक मानक र त्याग करने की प्रेरणा दी है। २. ग्रीष्म ऋतु में अनायास शीत का एवं शीत ऋतु में अनायास धूप आदि का संयोग हो जाने पर भी इन्द्रिय विजेता मुनिराज को राग-द्वेष नहीं करना चाहिये । ३. प्राचार्य श्री ने स्पर्शन एवं रसना इन्द्रिय को कामेन्द्रिय एवं सेष इन्द्रियों को भोगेन्द्रिय रूप कहा है। ४. इंद्रियों के अनेक दोष बतलाते हुए इनके आधीन न होने की प्रेरणा दी है। इस प्रकार ११२ श्लोकों में इन्द्रियों का स्वरूप एवं इन्द्रिय विजेता के अनेक गुणों का विशद यर्णन किया है।
विशेष-आचार्य ने इन इन्द्रियों के निरोधों का वर्णन पश्चात् आनुपूर्वी कम से किया है।
षट् प्रावश्यक:
सामायिक-अनुवाल प्रतिकूल १. परिस्थितियों में राग-द्वेष का परित्याग ही सामायिक है । ६ प्रकार से सामायिक के भेदों का कपन करते हुए ऋतु परिवर्तन में राग-द्वष करने का निषेध किया है और २. कांटों से भरे वन में कैष एवं बगीचे में राग करने का निषेध किया है। ३. छह प्रकार की गामायिक में भाव सामायिक को मुख्य बताया है। ४. अजितनाथ भगवान से पाश्वनाथ भगवान तक के २२ तीर्थङ्करों ने सामायिक संयम का ही उपदेश दिया है। ५. आदि व अन्त के तीर्थकरों ने मन्द बुद्धि एवं वक्रबुद्धि वाले जीवों को सामायिक व छेोपस्थापना दोनों संयम का उपदेश दिया है । ६. सामायिक की महिमा यताते हुए आचार्य श्री कहते हैं जो कर्म करोड़ों वर्षों के तप से नष्ट नहीं होते वह सामायिक के बल से प्राधे क्षरण में नष्ट हो जाते हैं । ७. अभव्य जीव भी प्रय सामायिक के प्रभाव से ऊध्वं अवेयक तक जाता है । ८. प्रथम चक्रवर्ती दिन भर के पापों को शुद्ध सामायिक के द्वारा ही नष्ट करते थे। इस प्रकार पाठक गण स्वयं अनुभव करेंगे कि आचार्य श्री ने सामायिक का स्वरूप व महिमा का वर्णन कितना सुबोध एवं अपूर्व शैली से किया है ।
स्तधन-१. नामादि के भेद से स्लवन भी ६ प्रकार के हैं। प्रत्येक स्तवन का विस्तृत वर्णन किया है। २. अन्त में स्तुति की महिमा का वर्णन करते हुए स्तुति का फल रत्नत्रय की प्राप्ति करने की इच्छा की है, रलत्रय प्राप्ति की इच्छा निदान नहीं है। ३. जिनेन्द्र भगवान ने कार्य सिद्धि के लिए रत्नत्रय आदि की इच्छा को अनुभय भाषा कहा है । ४. पंच परमेष्ठी प्रादि के गुणों में उत्पन्न हआ स्वाभाविक अनुराग को प्रशस्त अनुराग कहते हैं। ५. यह राग रत्नत्रय को उत्पन्न करने वाला है। आचार्य श्री ने स्तुति का स्वरूप एवं उसकी महिमा का बहुत ही मनोज वर्णन किया है।
[ ३३ ]