Book Title: Mulachar Pradip
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 15
________________ वन्दना - १. किसी एक तीर्थंकर आदि की स्तुति करना हो वन्दना श्रावश्यक है। इसका भी नामादिक के भेद से ६ प्रकार का वर्णन किया है। २. वन्दना में कृतिकर्म, चितिकर्म, पूजाकर्म, विनयकर्म इन ४ कर्मों से वन्दना की जाती है । इन चार कर्मों का आचार्य ने बड़ी सरल भाषा में वर्णन किया है । ३. विनय के ५ भेद किये हैं- (क) लोकानुवृत्ति ( ख ) अर्थनिमित्तिक ( ग ) कामहेतुक (ध) भय और (ङ) मोक्ष संज्ञक, ये पांच भेद किये हैं। प्रत्येक के स्वरूप का वर्णन करते हुए चार विनय को है बताया है एवं ४. सर्वोत्कृष्ट मोक्ष विनय धारण करने की प्रेरणा देते हुए इसका विस्तृत वर्णन किया है । ५. आगे आचार्य कृतिकर्म का वर्णन करते हुए कम कौन-कौनसी भक्ति करना चाहिये इसका बढ़ा सुन्दर उल्लेख किया है । ६ पुनः बन्दना के अनादसादि ३२ दोषों का वर्णन करते हुए उन दोषों का त्याग करने की प्रेरणा दी है। चतुर्थ अधिकार १. श्राचार्य देव ने चतुर्थ श्रध्याय में प्रतिक्रमण आदि तीन शेष आवश्यक एवं लोचादि साल विशेष गुणों का ३३१ श्लोकों में वर्णन किया है। प्रतिक्रमण - प्रथम हो मंगलाचरण के पश्चात् प्रतिक्रमण का स्वरूप एवं नामादि के भेद से उसके छः भेदों का परिभाषा सहित वर्णन किया । ३. पुनः उसम प्रतिक्रमण के सात भेद किये (१) प्रतिक्रामक (२) प्रतिक्रमण एवं (३) प्रतिक्रमितब्य के तीन भेदों का भी सुन्दर वर्णन किया हैं । ४. व्रतों की शुद्धि के लिये अन्तःकरण शुद्ध करके आलोचना करनी चाहिये | इसके देवसिक आदि सात भेदों का कथन किया है । ५. व्रतों की शुद्धि के लिये निन्दा गर्दा एवं शौक पूर्वक प्रति*मरण करना चाहिये । ६ अन्तरंग शुद्धि का कारण भाव प्रतिक्रमण ही है । ७. स्वभाव सरल वा कुटिल बुद्धि वाले शिष्य होने से प्रथम एवं अन्तिम तीर्थङ्कर ने पूर्ण प्रतिक्रमण करने की प्रेरणा दो है परन्तु मध्य के २२ तीर्थकरों के शिष्य बुद्धिमान एवं प्रमाद रहित थे अतः उन्होंने प्रमाद से जिस व्रत में दूषण लगे उतना ही प्रतिक्रमण करने की आज्ञा दी है। 5. आचार्य श्री ने प्रतिक्रमण को विस्तृत महिमा बता कर आत्मार्थियों को आलोचना पूर्वक प्रतिक्रमण करने को आज्ञा दी है । प्रत्यास्थान - १. तपश्चरण के लिये योग्य अथवा अयोग्य पदार्थों का त्याग करना ही प्रत्याख्यान है । २. निक्षेपों के भेद से प्रत्याख्यान छः प्रकार का होता है । ३. नामादि प्रत्याख्यान का स्वरूप बहुत सरल एवं स्पष्ट रूप से किया है । (१) प्रत्याख्यापक ( २ ) प्रत्याख्यान (३) प्रत्याख्यातव्यं इन तीनों का स्वरूप बताया है । ४. जो कि प्रत्याख्यान करने वाले को जानना नितान्त आवश्यक है । पुनः अनागत आदि प्रत्याख्यान के दस भेदों का कथन करते हुए तपश्चरण को वृद्धि के लिये इनका पालन करने की प्रेरणा दी। ५. किसा द्रव्य से मिले हुए जल को पोने से उपवास : [ ३४ ] そ

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