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है। ११. संबर सस्व-कर्मों के प्रास्रव को रोकने वाला जो प्रात्मा का शुद्ध परिणाम है वही भाव संबर है। १३ प्रकार के चारित्रादि भाव संवर के कारण हैं । जो मुनि योगों का निग्रह करके संबर करता है, उसी का जन्म व दीक्षादिक सार्थक है। संवर रहित मुनि का तपादिक भूसी कूटने के समान व्यर्थ, क्लेशकारी है। १२. निर्जरा तस्व-निर्जरा तत्व का स्वरूप एवं भेदों का कथन किया है। रत्नत्रयादि के द्वारा मोक्ष को प्रदान करने वाली कर्मों की निर्गरा करने की प्रेरणा दी है। १३. मोक्ष तस्व-द्रव्य मोक्ष एवं भाव मोक्ष का कथन करके सिद्धों के सुख का वर्णन किया। पुनः प्रयत्न पूर्वक मोक्ष सुख प्राप्त करनेकी प्रेरणा दी है । पुण्य पापका वर्णन करके पुण्यादि प्रकृतियों की संख्या बतलायी है। १४. सम्यग्दर्शन के आठ अङ्गों का स्वरूप निर्देश किया। १५. कुलपवंतादि का भूभाग चलाय यमान हो जाये परन्तु जिनेन्द्र भगवान का वचन चलायमान अथवा अन्यथा नहीं हो सकता । १६. सम्यग्दर्शन को विशुद्ध रखने के लिये सप्त तत्वों के विषय में शंकादि के त्याग की प्रेरणा दी है । १७. दूराकांक्षा का दूर करना हो निःकांक्षित अङ्ग है । १८. पुनः द्रव्य भाव चिकित्सा का स्वरूप निर्देश किया । इस प्रकार से नि:काक्षित अङ्गों का सरलतम शब्दों में स्वरूप निर्देश किया है । १९. माड अंर्गों को महिमा बताकर प्राचार्य श्री ने उन अंगों को प्रसन्नता पूर्वक धारण करने को प्रेरणा दी है। २.. लीव सूदता का स्वरूप बताकर उन्हें त्यागने की प्रेरणा दी है । २१. पुनः मास मदों के स्वरूप को बताकर जातिमादि के मद करने को विरर्थकता बताई है। २२. कण्ठगत प्रास होने पर भी बुद्धिमानों को जाल्याविक का मन नहीं करना चाहिये।
२३. पुन: नरक के कारणभूत सह अनायतनों के त्याग को प्रेरणा दी है। शङ्कादिक दोषों के भी त्याग की प्रेरणा दी है । २४. आचार्य ने सम्यग्दर्शन की महिमा बहुत अच्छे रूप से करके मोक्षार्थी को सम्यग्दर्शन के सन्मुख किया है। २५. सम्यग्दर्शन से युक्त प्रारम्भ करने वाला गृहस्थ श्रेष्ठ है एवं सम्यग्दर्शन से रहित तपस्वी साधु निंद्य होता है । २६. इस प्रकार सम्यग्दर्शन से युक्त नरक में निवास करना अच्छा है परन्तु इसके विना स्वमं में निवास करना शोभा नहीं देता है। २७. इस
कार सम्यग्दर्शन धारी जीव कहां-कहां उत्पन्न नहीं होते, इसका वर्णन कर सम्यग्दर्शन की महिमा कहकर दर्शनाचार का वर्णन करने वाला पांचवां अधिकार पूर्ण किया।
छठा अधिकार १. आचार्य श्री ने ५२६ श्लोकों में रोष ४ पंचाचार का विस्तृत वर्णन किया है । २. मंगलाचरण के प्राचान उत्तम जान की परिभाषा सारसभिव शब्दों में की है। मानाचार के पाठ मे बताकर सिद्धारत शास्त्र के पहने योग्य काल का वर्णन किया है। ३. सदनन्तर काल शुद्धि पूर्वक स्वाध्याय से साभ एवं प्रकाल में स्वाध्याय से शाग्नि का वर्णन किया। ४. पारमाधियों को द्रष्यादिक शुचिपूर्वक