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बाह्य तपश्चरण उसे ही कहा है जिससे अभ्यन्तर तप को वृद्धि करने वाले ध्यान, मध्ययन तप की वृद्धि हो । ४. प्राचार्य देव ने बाह्य तप की महिमा बताकर मोक्ष प्राप्ति के लिये समस्त शक्ति लगा. कर बाह्य तप करने की प्रेरणा दी है। ५. जो दूसरों को दिखाई न दे एवं अज्ञानीजन जिसे धारण नहीं कर सके वही श्रेष्ठ अभ्यन्तर लप है । प्राचार्य देय ने तपश्चरण का सारभूत वैय्यावृत्ति तप है । पुनः
(१) प्रायश्चित तप-१. प्रायश्चित्त तप के आलोचनादिक इस भेदों का निर्देश करके उनका पथक-पृथक स्वरूप निर्देश किया । २. प्राकम्पितादि दोषों को दूर करके आलोचना करने की प्रेरणा दी है। ३. प्राचार्य कैसे साधु को व्रतादिक में दूषण लगने पर कमा-कैसा प्रायश्चित्त देते हैं इसका बहुत अच्छा स्पष्टीकरण किया है। ४. पुनः व्रतों में दूषण लगने पर प्रायश्चित्त लेने में लाभ एवं नहीं लेने से हानि का वर्णन करके आत्मार्थियों को प्रायश्चित्त लेने की प्रेरणा दी है।
(२) विनम तप १. विनय तप के पांच भेदों का वर्णन विस्तार सहित करके मुमुक्ष जीवों को विनय करने की प्रेरणा दी है। २. उपचार विनय के प्रत्यक्षादिक भेद से छह प्रकार की होती है। ३. पुनः शारीरिक विनय के सात भेदों का वर्णन किया है। अन्त में धिनय तप की महत्ता एवं उसको धारण करने का बड़ा ही रोचक वर्णन किया ।
(३) वैयावृत्त्य तप-१. अशुभ ध्यान को नप्त करने के लिये एवं श्रेष्ठ ध्यानादि की सिद्धि के लिये आचार्यादिक को सेवा, सुश्रूषा करना वैयावृत्त्य तप है। २ प्राचार्य श्री नै १० प्रकार के मुनि का स्वरूप बतलाकर १० प्रकार की वैयावृत्त्य का स्वरूप निर्देश किया है। ३. वैय्यावृत्त्य करने वाले के निर्विचिकित्सा अङ्ग का पालन एवं तीर्थंकर प्रकृति आदि श्रेष्ठ पुण्य बन्ध होता है प्रतः आत्मार्थियों को वैय्यावृत्ति करनी चाहिये।
(४) स्वाध्याय तप-१. आचार्य श्री ने स्वाध्याय का स्वरूप व उसके भेदों का वर्णन करके स्वाध्याय की महिमा बताकर स्वाध्याय करने की प्रेरणा दी है। २. समस्त तपाचार में स्वाध्याय के समान न तो तप हुमा है और न आगे होगा। ३. क्योंकि स्वाध्याय से इन्द्रिय निरोध, तीन गुप्ति , का पालन, संवर, निजंग, मोक्ष की प्राप्ति रूप अनेक लाभ होते हैं ।
(५) कायोत्सर्ग तप-१. कायोत्सर्ग का वर्णन पहले षट् आवश्यकों में कायोत्सर्ग नामके छठे यावश्यक में विस्तृत वर्णन किया गया है।
(६) ध्यान तप - १. समस्त चितवन को रोककर एकाग्रचित्त से द्रव्यों के समूह का चिन्तवन करना ही ध्यान है। २. ध्यान के प्रशस्त एवं प्रशस्त भेद प्रभेद करके आचार्य श्री ने उनका अच्छा ! वर्णन किया। ३. बार्तध्यान प्रथम गुणस्थान में उत्कृष्ट एवं छठे गुणस्थान में जधन्य होता है। ४. उसी प्रकार रौद्रध्यान प्रथम गुणस्थान में उत्कृष्ट एवं पंचम गुणस्थान में जघन्य होता है।
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