Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड
..................................................................... स्थिति में कैसे काम चलेगा? दूकान की देनदारियों में अधिकतर राशि पिताजी के मित्रों की थी । एक दिन उन्होंने आपस में बैठकर तय किया कि मित्र तो गुजर गया, केसरीमल अभी बालक है, अत: उसे ढांढस बंधाकर परिवार व व्यापार को बिखरने से बचाना है, ऐसा सोचकर आगामी पाँच वर्ष तक अपनी रकम माँगने नहीं जाने का उन्होंने निश्चय कर लिया।
__मित्रों के इस निर्णय का अच्छा परिणाम निकला और भाग्य ने भी साथ दिया। पिताश्री के दिवंगत होने के बाद सिर्फ दो वर्ष के भीतर-भीतर सारा कर्जा उतर गया। युवा केसरीमल की लगन, परिश्रम एवं निष्ठा ने व्यवसाय को जमा दिया। अब पेढ़ी का नाम बदलकर 'हजारीमल शेषमल' की जगह 'शेषमल केसरीमल सुराणा' कर दिया।
इधर केसरीमलजी ने पारिवारिक जिम्मेदारियों को उसी लगन और दूरदर्शिता से निभाया । धर्मपत्नी श्रीमती सुन्दरदेवी ने भी प्राणप्रण से उनके हर काम में मदद की। भाई भंवरलाल बहुत छोटे थे, वे उन्हें हरदम अपने पास रखते कहीं पर अकेला नहीं छोड़ते, ससुराल भी जाते तो उन्हें साथ ले जाते । अपनी एकमात्र पुत्री के अल्पवय में ही आकस्मिक निधन के पश्चात् तो लघुभ्राता पर आपका विशेष स्नेह उमड़ पड़ा। पढ़ाने-लिखाने की खूब चेष्टा की, किन्तु अधिक प्यार के कारण भाई भंवरलालजी पाँचवीं से ज्यादा नहीं पढ़ सके । जब छोटे भाई की उम्र पन्द्रह-सोलह वर्ष की हुई तो बड़ी धूम-धाम के साथ शादी करा दी । जब से आपके कन्धों पर घर और व्यापार की जिम्मेदारी आ पड़ी, तब से आपने दुकान को एक मिनट भी खाली नहीं छोड़ा, जमकर बैठते तथा धन्धा करते किन्तु जब छोटे भाई की शादी करानी थी तो डेढ़ मास तक दुकान बन्द करके राणावास आ गये और पूर्ण उत्साह के साथ शादी कराई । भाई के प्रति ऐसे ममत्व का उदाहरण अन्यत्र दुर्लभ है।
'वंश-परम्परा' तालिका के अन्तर्गत हम यह देख चुके हैं कि आपके पिताश्री के बड़े भाई श्री तेजराजजी सुराणा ने आपको गोद लिया था। उनकी तीन दुकानें चलती थीं। श्री तेजराजजी का दत्तक पुत्र होने के नाते आपको तीनों दुकानों से अपने हिस्से की लाभ-हानि मिलनी चाहिए थी। यह तय भी किया गया था कि जब आपकी उम्र अठारह वर्ष की हो जाय तब तक आपको दो आनी हिस्सा दिया जाय एवं उसके बाद इन दुकानों से अपना हिस्सा निकालकर अलग से व्यापार आरम्भ करें, किन्तु पिताश्री के निधन के बाद इस निर्णय की उपेक्षा कर दी गई, अपने हिस्से की बहुत कम धनराशि इन्हें दी गई। उस समय आपने उन्हें कहा कि या तो मुझे पूरा हिस्सा दिया जाय अथवा मैं आपसे माँगूगा नहीं, मेरे भुजबल में इतनी शक्ति है कि मैं उससे पैदा कर लूगा।' हुआ भी यही, आपको अपने भुजबल पर ही भरोसा करना पड़ा और दत्तक पुत्र के रूप में नियमानुसार तीनों पेढ़ियों से जो मिलना चाहिए था, वह नहीं मिला। सारा मामला आपसी था, इसलिये आपने दूरदर्शिता से काम लिया और मामला आगे नहीं बढ़ाया । मृत्युभोज की राशि स्कूल भवन को
उन दिनों मृत्युभोज की प्रथा सर्वत्र प्रचलित थी। आपके माता-पिता गुजरने का मृत्युभोज भी आपने नहीं किया था। बड़े पिताजी व बड़ी माताजी गुजर गई थीं, उनका मृत्युभोज भी करना बाकी था। सगे-सम्बन्धियों ने मृत्युभोज करने के लिए आप पर दबाव डाला, किन्तु आप इस प्रथा के कट्टर विरोधी थे। पक्के सिद्धान्तवादी और प्रगतिशील विचारधारा के हिमायती थे । आपने समस्त दबावों को दृढ़ता के साथ टाल दिया और कहा, 'मैं यह काम हरगिज नहीं करूंगा और इसमें जितनी राशि खर्च होगी, उतनी स्कूल के भवन के लिये दान दे दूंगा।' उन दिनों मौसर में तीन हजार रुपये खर्च होते थे । आपने उन तीन हजार रुपयों से वि० सं० १९६५-६६ में एक भवन खरीदकर स्कूल के लिये भेंट दे दिया। केसरीमलजी जब तक बुलारम में रहे, इस भवन में चलने वाला स्कूल अच्छी तरह चलता रहा, उसके बाद बन्द हो गया । चूंकि मकान आपके नाम से ही खरीदकर स्कूल को दिया गया था, अतः आपने उसे वि० सं० २००३ में वहाँ के समाज को भेंट में दे दिया। अब यह तेरापंथी सभा भवन के रूप में विद्यमान है । साधु-साध्वियों के चातुर्मास भी अब इसी में होते हैं। प्रथम प्रतिज्ञा
वि०सं० १९८६ में मुनिश्री घासीरामजी का चातुर्मास बुलारम में था। उस समय आपके विचारों में एक हलचल
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