Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
सुक्कले ० - सम्मादिडि - खइय० दिट्ठिति ।
एव उक्कसिया द्वाणसण्णा समत्ता ।
१०. जहण्णियाए पयदं । दुविहो णिद्द सो- ओघेण आदेसेण य । ओघेणमोह • जहण्णाणुभागविहत्ती एगहाणिया । अज० एगडा० विद्वा० तिद्वा० चहाणिया वा । एवं मणुसतिग-पंचिंदिय पंचिं ० पज्ज० तस-तसपज्ज० पंचमण ० - पंचवचि०कायजोगि०--ओरालिय० - चत्तारिकसाय - चक्खु ० - अचक्खु०-- भवसि ० - सणि० - हारि त्ति । $ ११. देसेण रइएस ज० वेढाणियं । अज० वेडा० तिट्ठा० चउद्वाणियं वा । एवं सव्वणेरइय- सव्वतिरिक्ख मणुस अपज्ज० देव भवणादि जाव सहस्सार सव्वछेदोपस्थापनासंयत, सूक्ष्मसांपरायसंयत, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सामान्य सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टियों में जानना चाहिये । अर्थात् उनमें मोहनीयकर्मका उत्कृष्ट अनुभागस्थान स्थानिक होता है और अनुत्कृष्ट अनुभागस्थान द्विस्थानिक अथवा एकस्थानिक होता है ।
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विशेषार्थ - आदेश से प्ररूपणा करते समय यहाँ निर्दिष्ट सब मार्गणाओंको तीन भागों में विभक्त कर दिया है। प्रथम प्रकार में वे मार्गणाएँ आती हैं जिनमें ओघ उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्भव है । या उसका घात किये बिना जिनमें ऐसे जीवों की उत्पत्ति सम्भव है । दूसरे प्रकार में वे मार्गणाएँ आती हैं जिनमें क्षपकश्रेणि तो सम्भव नहीं पर अन्तरङ्ग विशुद्धिके कारण न तो द्विस्थानिक अनुभागसे ऊपरके या नीचके अनुभागका बन्ध ही होता है और न इससे आगेके या नीचे के अनुभागकी सत्ता ही रहती है । तथा तीसरे प्रकार में वे मार्गणाऐं आतीं हैं जिनमें परिणामों की विशुद्धिके कारण द्विस्थानिक अनुभागसे आगे के अनुभागका न तो बन्ध ही होता है और न सत्ता ही रहती है । परन्तु इन मार्गणाओं में क्षपकश्रेणिकी प्राप्ति सम्भव होने से यहाँ एकस्थानिक अनुभाग भी बन जाता है । मागंणाओंका नामनिर्देश मूलमें किया ही है ।
इस प्रकार उत्कृष्ट स्थानसंज्ञा समाप्त हुई ।
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[ अणुभागविहत्ती ४
$ १०. अब जघन्य स्थानसंज्ञाका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - ओघनिर्देश और आदेश निर्देश | ओघकी अपेक्षा मोहनीय कर्मकी जघन्य अनुभागविभक्ति एकस्थानिक होती है और अन्य अनुभागविभक्ति एकस्थानिक, द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक अथवा चतुःस्थानिक होती है। इसी प्रकार सामान्य मनुष्य, मनुष्यपर्याप्तक, मनुष्यिनी, पचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्तक, त्रस, सपर्याप्तक, पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, चारों कषायवाले, चक्षुदर्शनी, अचतुदर्शनी, भव्य, संज्ञी और आहारक में जानना चाहिये ।
विशेषार्थ - एक स्थानिक में भी जो सबसे हीन अनुभागशक्ति होती है वह जघन्य अनुभागशक्ति है और इसके सिवा शेष सब अजघन्य अनुभागशक्ति है । इनमें से मोहनीयकी जघन्य अनुभागशक्ति क्षपकसूक्ष्म साम्पराय के अन्तिम समयमें होती है। इसके सिवा अन्यत्र जघन्य होती है । घसे तो यह सम्भव है ही । पर जिन मार्गणाओं में मिथ्यात्वादि क्षपक सूक्ष्मसापराय तक गुणस्थान सम्भव हैं उनमें भी यह व्यवस्था बन जाती है, अतः मूलमें निर्दिष्ट मार्गेणाओंका कथन ओघके समान जानने की सूचना की है ।
११. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मोहनियकर्मका जघन्य अनुभागस्थान द्विस्थानिक होता हैं और अजघन्य अनुभागस्थान द्विस्यानिक, त्रिस्थानिक अथवा चतुःस्थानिक होता है । इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव, भवनवासीसे लेकर सहस्रार
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