Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २३ ]
अणुभागविहत्तीए सण्णा चत्तारिकसाय-चक्खु०-अचक्खु०-भवसि०-सण्णि-आहारि ति ।
६. आदेसेण णेरइएसु उक्स्स ० चउहाण । अणुक० वेडा० तिहा० चदुहाणियं वा । एवं सव्वणेरइय-सव्वतिरिक्ख-मणुसअपज्ज०-देव भवणादि जाव सहस्सार सव्वेइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज्ज०--सव्वपंचकाय-तसअपज्ज०-ओरालयमिस्स०-वेउब्विय०-वेउव्वियमिस्स०--कम्मइय०--तिण्णिवेद--तिण्णिअण्णाण--असंजद-पंचले०-अभवसि०-मिच्छादिहि-असण्णि-अणाहारि ति । आणदादि जाव सव्वहसिद्धि ति उक्क० अणुक्क० वेहाणियं । एवमाहार०-आहारमिस्स०-अकसाय-परिहार०जहाक्खाद०-संजदासंजद-वेदगसम्माइहि-उवसम०-सासण-सम्मामि०दिहि त्ति । अवगदवेदेसु मोह० उक्क० वेढाणियं । अणुक्क० वेढाणियमेगहाणियं वा । एवमाभिणि०सुद०-ओहि ०--मणपज्जव०--संजद०--सामाइय-च्छेदो०--मुहुमसांपराइय०--अोहिदंस०योगी, चारों कषायवाले, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, भव्य, संज्ञी और आहारकमें जानना चाहिये।
विशेषार्थ-घातिकर्मोंकी अनुभागशक्ति लता, दारु, अस्थि और शैल इस प्रकार चार प्रकारकी मानी गई है। जिसमें यह चारों प्रकारकी शक्ति होती है उसे चतुःस्थानिक अनुभाग कहते हैं। जिसमें शैलरूप शक्तिके सिवा तीन प्रकारकी शक्ति होती है उसे त्रिस्थानिक अनुभाग कहते हैं। जिसमें लता और दारुरूप शक्ति होती है उसे द्विस्थानिक अनुभाग कहते हैं और जिसमें केवल लतारूप शक्ति होती है उसे एकस्थानिक अनुभाग कहते हैं। उत्कृष्ट अनुभागशक्ति चतुःस्थानिक होती है यह स्पष्ट ही है और उससे हीन सब अनुभाग शक्ति अनुत्कृष्ट कहलाती है, इसलिए अनुत्कृष्ट अनुभागशक्तिको चतुःस्थानिक आदि चारों प्रकारका कहा है। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि एकस्थानिक अनुभागशक्ति क्षपकश्रेणिके सिवा अन्यत्र नहीं उपलब्ध होती। यही कारण है कि यहाँ जिन मार्गणाओंमें क्षपकश्रेणि सम्भव है उनका कथन ओघके समान जाननेकी सूचना की है।
६६. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें उत्कृष्ट अनुभागस्थान चतुःस्थानिक होता है और अनुत्कृष्ट अनुभागस्थान द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक अथवा चतुःस्थानिक होता है। इसी प्रकार सब नारकियों, सब तिर्यञ्चों, मनुष्य अपर्याप्तक, सामान्य देव, भवनवासीसे लेकर सहस्त्रार स्वर्ग तकके देव, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रियअपर्याप्त, सब पाँचों स्थावरकाय, त्रस अपर्याप्तक, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, तीनों वेदवाले, मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी, विभङ्गज्ञानी, असंयत, शुक्ललेश्याके सिवा शेष पाँचों लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहरकमें जानना चाहिये । अर्थात् उनमें उत्कृष्ट अनुभागस्थान चतुःस्थानिक होता है और अनुत्कृष्ट अनुभागस्थान चतुःस्थानिक, त्रिस्थानिक अथवा विस्थानिक होता है। नतस्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागस्थान द्विस्थानिक ही होता है। इसी प्रकार आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अकषायी, परिहारविशुद्धिसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंमें जानना चाहिये। अर्थात् उनमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागस्थान द्विस्थानिक ही होता है। अपगतवेदी जीवोंमें मोहनीयकर्मका उत्कृष्ट अनुभागस्थान द्विस्थानिक होता है और अनुत्कृष्ट अनुभागस्थान द्विस्थानिक अथवा एकस्थानिक होता है। इसी प्रकार आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रु तज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत,
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