________________ सारी संवेदनाएं-इन दो अनुभूतियों, इन दो संवेदनाओं में समा जाती हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ-यह इन्हीं का विस्तार है। भय, शोक, घृणा, हास्य, वासना (काम-वासना)-ये सारे इन्हीं दो अनुभूतियों के विस्तार हैं, प्रपंच हैं, किन्तु स्वतन्त्र अनुभूतियां नहीं हैं। सारी अनुभूतियां इन दो में समा जाती हैं। जैन आचार्यों ने क्रोध और अभिमान को द्वेषात्मक अनुभूति और माया तथा लोभ को रागात्मक अनुभूति माना है। राग और द्वेष-यह सामान्य वर्गीकरण है। जब विभिन्न दृष्टियों से विचार किया गया, नयों की दृष्टियों से विचार किया गया तो इस वर्गीकरण का विस्तार हुआ। संग्रह नय की दृष्टि से दो वृत्तियां हैं, दो ही अनुभूतियां हैं-एक है रागात्मक, दूसरी है द्वेषात्मक। व्यवहार नय और ऋजुसूत्र नय की दृष्टि से विचार किया गया तो इस वर्गीकरण में परिवर्तन आ गया। यह फलित हआ कि अभिमान द्वेषात्मक है क्योंकि अभिमान जो है वह दूसरे के गुणों के प्रति असहिष्णुता का प्रतीक है। व्यक्ति दूसरे को सहन नहीं कर पाता इसलिए अभिमान पैदा होता है। यह द्वेष है, अप्रीत्यात्मक संवेदना है। परन्तु एक प्रश्न होता है, क्या मान प्रीत्यात्मक नहीं होता? मान प्रीत्यात्मक भी हो सकता है। दूसरे के प्रति हीनता का भाव है, असहिष्णुता का भाव है, इसलिए तो मान अप्रीत्यात्मक है। किन्तु जब अपने उत्कर्ष की अनुभूति होती है, उस समय वह प्रीत्यात्मक बन जाता है। उत्कर्ष कितना अच्छा लगता है ! मानवीय चेतना जब अपने उत्कर्ष का अनुभव करती है तब वह अनुभूति अप्रीत्यात्मक नहीं होती, वह प्रीत्यात्मक होती है। इसलिए मान प्रीत्यात्मक भी है और अप्रीत्यात्मक भी है। दूसरे की हीनता के प्रदर्शन में वह अप्रीत्यात्मक होता है और अपने उत्कर्ष की अनुभूति में वह प्रीत्यात्मक होता है। __ माया को रागात्मक माना गया है। माया-काल में चेतना की जो अनुभूति होती है वह प्रिय लगती है कि मैंने बहुत समझदारी से काम किया कि वह परास्त हो गया, प्रताड़ित हो गया। उस समय सुखद अनुभव होता है, प्रीति का अनुभव होता है। माया प्रीत्यात्मक होती है। यह एक बात है। 20 कर्मवाद