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भारतीय संस्कृति में ध्यान परम्परा
रखती थी और न ही श्रमण संस्कृति का पूरी तरह अनुसरण करती थी। वे साधक बाह्य शुद्धि में विश्वास करते थे तथा साथ-ही-साथ तपस्या आदि में भी प्रवृत्तिशील थे । श्रमणों की तरह पाद - विहार करते थे। उनके अपने-अपने समुदाय 27110
'औपपातिक' में अम्बड़ नामक एक परिव्राजक का वर्णन आया है जो अपने समय का, अपनी परम्परा का अत्यन्त प्रसिद्ध व्यक्ति था । कहा गया है कि उसके सात सौ अन्तेवासी थे। ऐसा भी उल्लेख हुआ है कि दाता के अभाव में जल न मिलने के कारण उन सभी ने आमरण अनशन द्वारा अपने प्राणों का विसर्जन किया । "
'सूत्रकृतांग' में पंच महाभूतवाद, एकान्तवाद, तज्जीवतच्छरीरवाद, अकारकवाद, आत्मषष्ठवाद तथा क्षणिकवाद का उल्लेख हुआ है 112
'ब्रह्मजाल सुत्त' में और 'सूत्रकृतांग' में निर्दिष्ट ये दार्शनिक मत एकदूसरे के पूरक कहे जा सकते हैं। इनमें अधिकांश सम्प्रदाय श्रमण संस्कृति के धरातल पर खड़े हुए हैं और प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से किसी-न-किसी प्रकार श्रमण परम्परा से प्रभावित हैं।
खण्ड : प्रथम
आचार नियमों के यत् किञ्चित् भेद के आधार पर ये भिन्न-भिन्न मत, वाद या समुदाय अस्तित्व में आये। अपने - अपने प्रभावित क्षेत्रों में व्याप्त भी रहे, किन्तु शनैः शनैः उनका अस्तित्व लुप्त होता गया और मुख्यत: जैन और बौद्ध परम्पराओं में ही श्रमण संस्कृति पोषित होती रही ।
'भागवत' आदि हिन्दू ग्रन्थों में ऐसे साधकों की परम्परा का उल्लेख है जो वन, गिरि-कन्दरा, श्मशान भूमि आदि एकान्त स्थान को आवास हेतु स्वीकार करके वहाँ ध्यान-साधना करते थे । इनका सामाजिक लोगों से स्पष्ट पार्थक्य दृष्टिगोचर होता था। इनमें से अनेक तो निर्वस्त्र रहते थे और जटाजूट धारण करते थे । आहार की दृष्टि से इनका जीवन तितिक्षापूर्ण था । यह परम्परा 'तापस' नाम से प्रसिद्ध हुई । तापसो में ब्राह्मण और श्रमण संस्कृति का मेल था । 'सूत्रकृतांग' एवं 'औपपातिक सूत्र'
10. औपपातिक सूत्र पृ. संख्या 125-135 11. वही, पृ. सं. 136-141
12. सूत्रकृतांग सूत्र, 1/1, पृ. 20/38
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