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खण्ड : प्रथम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
राजचन्द्र के साहित्य में भी ध्यान संबंधी तत्त्वों पर चिन्तन किया गया है।
आचार्य तुलसी के 'मनोनुशासनम्' में जैन योग का एक नयी शैली से प्रतिपादन हुआ है।
__वर्तमान में प्रचलित विपश्यना ध्यानसाधना, प्रेक्षाध्यान साधना, समीक्षण ध्यानसाधना, ध्यानयोग व ध्यानमुद्रा पर भी अग्रिम अध्यायों में विस्तृत चर्चा करेंगे।
ब्राह्मण संस्कृति
सांस्कृतिक दृष्टि से भारत में मुख्य रूप से दो धाराएँ संप्रवाहित हुईं, जिन्हें ब्राह्मण और श्रमण के नाम से अभिहित किया जाता है। ब्राह्मण शब्द अपने मूल अर्थ में जातिवाचक नहीं है। यह ब्रह्म से सम्बद्ध है। ब्रह्म शब्द का प्रारम्भिक अर्थ यज्ञ है, यज्ञ का संबंध वेदों से है। यज्ञ संबंधी वैदिक कर्मकाण्ड से जब मानव मन को संतोष नहीं मिला तो उसने वेदांत का विकास किया और ब्रह्म शब्द को उस परमसत्ता से जोड़ा जो सम्पूर्ण अस्तित्व के मूल में निहित है।
वेद का अर्थ अनुभूति या ज्ञान है। वेदों से ही वेदान्त के ज्ञान - मार्ग का विकास हुआ। इस प्रकार कर्मकाण्ड ज्ञानमार्ग में रूपान्तरित हुआ और कहा गया 'ऋते ज्ञानात् न मुक्तिः ' ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं होती। वेदान्त का यही मुख्य स्वर है। कहा गया है -
श्लोकार्थेन प्रवक्ष्यामि यदुक्तं ग्रन्थकोटिभिः। ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः॥
इस श्लोक का आशय यह है कि ब्रह्म, जीव तथा अविद्या या माया मुख्यत: ये तीन तत्त्व हैं। ब्रह्म परात्पर, परम ज्योतिर्मय, शक्तिमय, आनन्दमय सर्व व्यापक तत्त्व है। जीव वास्तव में ब्रह्म ही है, किन्तु अविद्या के कारण वह अपने को पृथक् मानता है।
वेदान्त में एक उदाहरण दिया गया है - अंधकार का समय है। एक व्यक्ति मार्ग पर चल रहा है, मार्ग में एक रस्सी पड़ी है, उसे ठीक-ठीक दिखाई न देने के कारण वह सर्प प्रतीत होती है। उसके कदम वहीं रुक जाते हैं। वह सर्प के भय से ~~~~~~~~~~~~~~- 23 ~~~~~~~~~~~~~~~
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