Book Title: Jain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Author(s): Uditprabhashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 442
________________ आधुनिक चिन्तक और ध्यानसाधना सूचित किया गया है कि यम योग के प्रथम अंग के रूप में स्वीकृत है अर्थात् योग साधना का एक भाग है । साधना की पूर्ति इसे आगे के छह अंगों को पार कर आठवें अंग समाधि में पहुँचने में होती है । किन्तु महाव्रत जैन दर्शन में बड़ी व्यापकता लिये हुए हैं। वहाँ संयममूलक साधना का समग्रतया समावेश हो जाता है, क्योंकि महाव्रती की दैनंदिनी चर्या, महाव्रतों के अक्षुण्ण रूप में परिपालन हेतु स्वीकृत विभिन्न आध्यात्मिक उपक्रम, उनकी भावना, समिति - गुप्ति तथा उनके सम्यक् परिपालन हेतु नवतत्त्वों का विशिष्ट ज्ञान, इन सब का समावेश होता है । किन्तु ऐसे हुए बिना महाव्रतों का पालन सम्यक् रूप में सध नहीं सकता । महाव्रत रूप संयम के निर्बाध - निरपवाद परिपालन हेतु ही साधना के विभिन्न अंगों का विकास हुआ। दैहिक, मानसिक चंचलता, अस्थिरता यदि बनी रहती है तो महाव्रतों का पालन दुःशक्य हो जाता है। इसी कारण महाव्रती के लिए स्थिरचेता, दृढ़ संयमी, आत्मपराक्रमी और मनोजयी होना अपरिहार्य है। इसी के लिए ध्यान आदि की विशेष उपयोगिता है। ध्यान का साध्य आत्मस्वरूप का अधिगम है। महाव्रतमय संयम का अन्तिम लक्ष्य भी वही है जिसे मोक्ष कहा जाता है। खण्ड : नवम UN ध्यान साधक के जीवन में उस केन्द्र का संशोधन करता है जिस पर साधना विविध अंग समाश्रित हैं। उससे जब मन का चांचल्य अपगत हो जाता है तो साधक का आत्मपराक्रम प्रस्फुटित होता है । मानसिक एकाग्रता, स्थिरता के कारण उनकी वृत्तियाँ, इन्द्रियों के विषयों से मुड़कर आत्मोन्मुखता पा लेती हैं। इसलिए साधक सहज ही सावद्य कार्यों का वर्जन करता जाता है। जब वृत्तियाँ आत्मस्वरूप में टिक जाती हैं तब भौतिक एषणायें विलुप्त हो जाती हैं, कामनाएँ नष्ट हो जाती हैं, वासनायें क्षीण हो जाती हैं । फलत: महाव्रत सधते जाते हैं । महाव्रतों की इन्हीं विशेषताओं के कारण ही सम्भवत: ग्रन्थकार ने एक पूरे प्रकरण में लगभग इन्हीं का विवेचन किया है। सातवें प्रकरण में साधना के परमोच्च रूप जिनकल्प और उसकी भावनाओं का निरूपण है। जिनकल्प जैन साधना का उच्चतम रूप है। यहाँ साधक अपने साधनाक्रम जिन अर्थात् वीतराग परमात्मा के समान अत्यन्त उच्च, पवित्र, निर्दोष, उदग्र तपोमय साधना में संलग्न रहता है। वह क्षुधा, तृषा, स्थानादि की अनुकूलता इत्यादि की जरा 22 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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