Book Title: Jain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Author(s): Uditprabhashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 477
________________ मन की चार अवस्थाओं का चित्रण किया और ध्यान की एकाग्रता के लिए यह आवश्यक माना कि व्यक्ति विक्षिप्त या यातायात मनःस्थितियों से ऊपर उठता हुआ श्लिष्ट और सुलीन मन को प्राप्त करे। तभी उसकी ध्यान साधना सफल हो सकती है। हेमचन्द्र द्वारा उल्लिखित मन की ये चार अवस्थायें पातंजल योग में वर्णित पाँच अवस्थाओं का ही रूपान्तर था। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन धर्म में ध्यान का एक ऐतिहासिक क्रम में विकास हुआ। आचार्य शुभचन्द्र की एक दूसरी विशेषता यह भी रही कि उन्होंने त्रितत्त्व के अन्तर्गत शिवतत्त्व, काम तत्त्व और गरुड़ तत्त्व का जो विवेचन किया है वह ध्यान में परमोच्च श्रेयस् भाव, तीव्रतम उत्साह और परम पराक्रम को संयोजित करने के लिए किया गया है। वस्तुत: आचार्य शुभचन्द्र की इस चर्चा पर भी शैव तांत्रिकों का स्पष्ट प्रभाव है। आचार्य शुभचन्द्र के पश्चात् आचार्य हेमचन्द्र के पूर्ववर्ती आचार्यों ने 'यशस्तिलकचम्पू' के कर्ता आचार्य सोमदेव का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इन्होंने 'यशस्तिलक चम्पू' के उपासकाध्ययन, जो स्वतंत्र ग्रन्थ के रूप में भी प्रकाशित हुआ है, उसमें ध्यान का विवेचन किया है। इसके अतिरिक्त भी उनका एक स्वतंत्र ग्रन्थ ‘योगमार्ग' है जो ध्यान से सम्बन्धित है। इस ग्रन्थ में यह बताया गया है कि ध्यान एक ऐसी रसायन विधि है जिससे आत्मा निष्कलुष, निर्दोष और निर्मल बन जाती है। योगमार्ग, में सामान्यतया परम्परागत चारों ध्यानों की चर्चा हुई है। इसमें केवल एक ही विशेषता परिलक्षित होती है वह यह कि ग्रन्थकार ने ध्यान-साधना के साथसाथ प्राणायाम आदि को भी जोड़ने का प्रयत्न किया है। इस प्रकार यह ग्रन्थ जैन परम्परा सम्मत ध्यान के साथ-साथ योग परम्परा की प्राणायाम आदि की विधि को भी सम्मिलित करता है। इस प्रकार यह ग्रन्थ पातंजल योग और जैनदर्शन का समन्वित रूप प्रतीत होता है। इसकी अपेक्षा उपासकाध्ययन अति विस्तृत है और परम्परागत जैन ध्यानविधि को प्रस्तुत करता है। जैन ध्यान परम्परा के ऐतिहासिक विकास क्रम की दृष्टि से भास्करानन्दी का 'ध्यानस्तव' एक प्रमुख ग्रन्थ माना जा सकता है। आप शुभचन्द्र रो परवर्ती और हेमचन्द्र के समकालीन माने जाते हैं। इनका काल बारहवीं शताब्दी है। इस ग्रन्थ में भास्करानन्दी ने जहाँ एक ओर आगमसम्मत ध्यान के चार भेदों, उनके लक्षणों, अवलम्बन आदि की चर्चा की है वहीं उन्होंने शुभचन्द्र और हेमचन्द्र के समरूप ही पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपवर्जित तथा पार्थिवी आदि धारणाओं का उल्लेख (7) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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