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5.ध्यान तत्वतः आत्मनिष्ठा है। किन्तु जब मन
संकल्पों से घिर जाता है और उसके निरसन हेतु चेष्टा की जाती है तो इस चेष्टा को ध्यान शब्द से व्यक्त किया जाता है। आत्मनिष्ठता तुम्हारा वास्तविक स्वरूप है तुम जैसे हो तथावत् रहो। यही लक्ष्य है।
महर्षि रमण 'ध्यान' पुस्तक से उद्धृत
6.ध्यान अभियान है-सबसे बड़ा अभियान जिस पर मनुष्य का मन निकल सकता है। ध्यान है बस होना-कुछ भी न करते हुएकोई क्रिया नहीं, कोई विचार नहीं, कोई भाव नहीं। तुम बस हो। और यह एक खालिस आनंद है।
ओशो रजनीश ध्यान योग प्रथम और अंतिम मुक्ति' पृष्ठ 2
7.चित्त का विविध विकल्पों से रहित होकर एक विकल्प पर स्थिर हो जाना और अन्त में निर्विकल्प हो जाना ही ध्यान है।
डॉ. सागरमल जी जैन, शाजापुर
8.ध्यान अन्तर्यात्रा का वह सोपान है जो साधक को आन्तरिक पहचान कराता है। ध्यान के द्वारा ही साधक अपने मन को वश में कर रागादि से मुक्त होकर निर्विघ्न रूप से समभाव में लीन हो जाता है। इसे आत्ममन्दिर में प्रवेश का द्वार कहा जा सकता है।
डॉ. नरेन्द्रसिंह अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, राजकीय महाविद्यालय,
ब्यावर (राज.)
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