Book Title: Jain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Author(s): Uditprabhashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

View full book text
Previous | Next

Page 479
________________ हेमचन्द्र के पश्चात् यद्यपि जैन योग पर 'योगप्रदीप' एक महत्त्वपूर्ण कृति के रूप में जानी जाती है किन्तु इसके लेखक, लेखनकाल और परम्परा आदि का हमें कुछ भी पता नहीं चलता है। श्वेताम्बर परम्परा में हेमचन्द्र के बाद उपाध्याय सकलचन्द्र गणि ने 'ध्यानदीपिका' नामक एक स्वतंत्र कृति की रचना की। यह कृति विक्रम सं. 1621 अर्थात् सन् 1565 की रचना है। इस कृति में ध्यान के महत्त्व, ध्यान के पात्र या अधिकारी के साथ-साथ ध्यान विधि का उल्लेख हुआ है। यह कृति आचार्य शुभचन्द्र के ज्ञानार्णव से अधिक प्रभावित प्रतीत होती है। इसमें भी परम्परागत चारों ध्यानों का उल्लेख हुआ है। इस कृति की विशेषता यह है कि इसमें जहाँ एक ओर शुभचन्द्र, हेमचन्द्र आदि से समरूपता देखी जाती है वहीं दृष्टिकोण की अपेक्षा दोनों में अन्तर है। सकलचन्द्र आसन आदि ध्यान के सहायक तत्त्वों पर कोई विशेष बल नहीं देते अपितु वे आसन और प्राणायाम को ध्यान के क्षेत्र में विघ्नकारी ही मानते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि सकलचन्द्र गणि ने आसन, प्राणायाम आदि की ध्यान के लिए व्यर्थता सिद्ध करके प्राचीन आगमिक धारा का समर्थन किया है। इसे हम ध्यान के क्षेत्र में नवीन परिवर्तन तो नहीं कह सकते किन्तु इतना अवश्य कह सकते हैं कि सकलचन्द्र गणि की दृष्टि कहीं न कहीं आगमिक परम्परा से प्रभावित है। किन्तु दूसरी ओर यह भी देखा जाता है कि वे भी आचार्य शुभचन्द्र और हेमचन्द्र के समान ही पिण्डस्थ आदि ध्यानों का विवेचन करते हैं, फिर भी उनके चिन्तन में कहीं-नकहीं आगमिक दृष्टि समाहित है। यही कारण है कि उन्होंने भी शुभचन्द्र, हेमचन्द्र आदि का अनुसरण करते हुए मैत्री प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ इन चार भावनाओं का वर्णन किया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि इस सप्तम अध्याय में सामान्यतया आगमिक परम्परा को सुरक्षित रखते हए भी ध्यान सम्बन्धी विवेचन में कहीं-न-कहीं पातंजल योग और शैव तन्त्र के प्रभाव परिलक्षित होते हैं। प्रस्तुत प्रबन्ध का आठवाँ अध्याय मुख्य रूप से उपाध्याय यशोविजय, योगिराज आनन्दघनजी से सम्बन्धित है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि उपाध्याय यशोविजय जी और आनन्दघनजी दोनों ही आध्यात्मिक दृष्टि संपन्न व्यक्तित्व हैं। उपाध्याय यशोविजयजी ने पातंजल योगसूत्र पर अपनी वृत्ति लिखी है। उनकी कृतियों में अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद् और ज्ञानसार मुख्य रूप से आत्मोपलब्धि को ही अपना प्रतिपाद्य बनाते हैं। यद्यपि इन कृतियों में ध्यान सम्बन्धी प्रकीर्ण-निर्देश तो उपलब्ध (9) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492