Book Title: Jain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Author(s): Uditprabhashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 480
________________ हैं किन्तु इन्हें ध्यानयोग के स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं कहा जा सकता है। 'ज्ञानसार' के प्रतिपाद्य विषयों में जो 32 अष्टक हैं, उनमें एक ध्यानाष्टक भी है। ध्यानाष्टक में उपाध्याय यशोविजयजी ने ध्यान से होने वाली आध्यात्मिक उपलब्धि का निर्देश किया है। उनका कथन है कि ध्यान वह विलक्षण साधना है जिसके माध्यम से तीर्थंकर के सर्वोत्कृष्ट पद को प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रकार ध्यानाष्टक में भी उपाध्यायश्री ने ध्यान के महत्त्व को प्रतिपादित किया है किन्तु ध्यानसाधना की किसी विशिष्ट विधि को रेखांकित नहीं किया । अध्यात्मयोगी आनंन्दघन की कृतियाँ भी अध्यात्म रस से ही परिपूर्ण हैं । उनकी कृतियों में चौबीसी और स्वतन्त्र पद महत्त्वपूर्ण हैं। आनन्दघन एक रहस्यवादी चिन्तक हैं। सामान्यतया उन्होंने आत्मा से परमात्मा के मिलन की अपेक्षा रखते हुए विरह वेदना में अपनी तड़प को ही अभिव्यक्त किया है। फिर भी उनकी रचनाओं में चित्तवृत्ति की एकाग्रता पर बल दिया गया है । मात्र यही नहीं, उन्होंने हठयोग से प्रभावित होकर ईड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियों की तथा षट्चक्रों के भेदन की बात भी कही है। इन ग्रन्थों में हमें ध्यान विधि का कोई स्पष्ट विवेचन तो उपलब्ध नहीं होता हैं किन्तु तत्सम्बन्धी संकेत अवश्य उपलब्ध हो जाते है। इन दोनों ही आध्यात्मिक साधकों की दृष्टि में ध्यान का मुख्य लक्ष्य परमात्मस्वरूप की उपलब्धि या आत्मा या परमात्मा का मिलन है । इस प्रकार इन्होंने ध्यान साधना के ध्येय को तो स्पष्ट किया है किन्तु उसकी व्यवस्थित विधि का कहीं कोई निर्देश नहीं किया । इनका आध्यात्मिक रहस्यवाद साधना मूलक होने की अपेक्षा अनुभूति मूलक है। वह विधिविधान के अनुसरण को इतना महत्त्व नहीं देता । यही कारण है कि इन्होंने ध्यान साधना की स्पष्ट विधि का कोई उल्लेख नहीं किया। यशोविजय और आनन्दघन के बाद जैन परम्परा में लगभग तीन शताब्दियों तक ऐसा कोई प्रखर आचार्य परिलक्षित नहीं होता है जिसने जैन ध्यान साधना विधि को नया आयाम दिया हो । जैन ध्यान साधना के ऐतिहासिक विकासक्रम में सबसे महत्त्वपूर्ण युग बीसवीं शताब्दी का माना जा सकता है। इस युग में श्रीमद् राजचन्द्र एक ऐसे व्यक्तित्व हैं जो ध्यान साधना को अत्यन्त महत्त्व प्रदान करते है । यद्यपि उनकी आत्मसिद्धि आदि कृतियों का मुख्य प्रतिपाद्य स्वरूपानुभूति ही है, फिर भी उस स्वरूपानुभूति में वे ध्यानसाधना को महत्त्व देते थे । ध्यानसाधना की उनकी पद्धति आगमिक परम्परा का ही अनुसरण करती है । वे परम्परागत चारों ध्यानों, उनके लक्षणों, आलम्बनों और प्रकारों Jain Education International (10) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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