________________
यह भी विशेषता है कि उनमें ध्यान सम्बन्धी विवेचन के प्रसंग पर अन्य दार्शनिक मतों की समीक्षा भी की गई है और उनकी कमियों को इंगित भी किया गया है। इस प्रकार तत्त्वार्थ सूत्र की टीकाओं का ध्यान सम्बन्धी विवेचन समीक्षात्मक है। इसके मूल सूत्र में ही यह बताया गया है कि चार ध्यानों में अन्तिम दो ध्यान ही मोक्ष के हेतु हैं।
सम्भवतः, जैन दर्शन में ध्यान पर सबसे पहले कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखा गया है तो वह जिन-भद्रगणि क्षमाश्रमण का 'ध्यान शतक' ही है। यह ग्रन्थ ध्यान के स्थल, ध्यान के काल, ध्यान की अवधि, ध्यान के आसन, ध्यान के अवलम्बन, ध्यान का विषय, ध्याता की योग्यता आदि सभी तत्त्वों पर सर्वांगीण प्रकाश डालता है। यह ग्रन्थ मूलत: तत्त्वार्थ की टीकाओं से परवर्ती है और इसलिए हम कह सकते हैं कि तत्त्वार्थ की टीकाओं में जो ध्यान के स्थल, काल आदि का विवेचन है वह सम्भवत: प्रथम बार सुव्यवस्थित रूप से ध्यान शतक' में ही उपलब्ध होता है। इस ग्रन्थ की एक अन्य विशेषता यह है कि इसमें ध्यान के क्रमिक सोपानों पर आरोहण के पश्चात् साधक किस प्रकार आत्मस्वरूप में लीन होता है, इसका भी उल्लेख किया गया है।
इष्टोपदेश आचार्य पूज्यपाद की एक आध्यात्मिक साधनाप्रधान रचना है। इस कृति को भी इसी चतुर्थ अध्याय में समाहित किया गया है। पूज्यपाद ने अपने ध्यान सम्बन्धी विवेचन में मुख्य रूप से तीन बातें प्रस्तुत की हैं। प्रथम तो उन्होंने यह बताने का प्रयास किया है कि ध्यान प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार का हो सकता है। साधक को प्रशस्त ध्यान की ओर ही अपने कदम बढ़ाने चाहिए। दूसरे, ध्यान में हमारा लक्ष्य स्व स्वरूप की उपलब्धि ही होना चाहिए। तीसरे, वे कुन्दकुन्द का अनुसरण करते हुए स्पष्ट रूप से यह प्रतिपादित करते हैं कि ध्याता, ध्येय
और ध्यान में तादात्म्य है। अशुद्ध आत्मा ध्याता है, शुद्ध आत्मतत्त्व ध्येय है और शुद्ध आत्म तत्त्व के स्वरूप का चिन्तन करना ही ध्यान है। इसी प्रकार उन्होंने अपने दूसरे ग्रन्थ 'समाधितंत्र' में आत्मानुभूति को ही ध्यान माना है। इस ग्रन्थ में उन्होंने ध्यान के स्थान पर उपासक, उपास्य और उपासना के एकत्व पर बल दिया है और स्वस्वरूप में अवस्थिति को ही साधमा का लक्ष्य बताया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि आगमिक युग से प्रारम्भ होकर जैन ध्यान परम्परा में एक क्रमिक विकास हुआ है। परवर्ती आचार्यों ने यद्यपि आगमिक अवधारणाओं को अपना आधार बनाया है किन्तु उन्होंने आगमिक संकेतों से आगे बढ़ते हुए एक युगानुकूल ध्यान विधि का
(5)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org