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विकास भी किया है।
किन्तु यहाँ स्मरण रखना चाहिए कि 'आचारांग' जैसे प्राचीन स्तर के आगमों में आत्मसजगता या साक्षी भाव की जिस ध्यान विधि के संकेत उपलब्ध होते हैं वह ध्यानविधि कालक्रम में विस्मृत होती गयी और मुख्य रूप से चित्त की एकाग्रता को ही आधार बनाकर ध्यानविधि का विकास किया गया। दूसरी ओर आध्यात्मिक दृष्टिप्रधान आचार्यों ने ध्यान को आत्मानुभूति से एवं आत्मरमण से जोड़कर ध्यान की एक व्यवस्थित प्रक्रिया की उपेक्षा की। इस प्रकार महावीर से लेकर लगभग आठवीं शताब्दी के पूर्व तक जैन परम्परा में ध्यानविधि में अनेक रूपान्तरण हुए ।
पुनः आठवीं शताब्दी में आचार्य हरिभद्र ने जैन ध्यान विधि को योगसाधना साथ जोड़ने का प्रयत्न किया । आचार्य हरिभद्र के व्यापक चिन्तन के परिणामस्वरूप जहाँ एक ओर जैन ध्यानविधि योग-दर्शन से प्रभावित हुई वहीं दूसरी ओर जैन परम्परा के वैशिष्ट्य को सुरक्षित रखने के लिए आचार्य हरिभद्र ने आठ योगदृष्टियों का विकास किया और उन्हें अष्टांग योग के रूप में प्रतिष्ठित किया । वस्तुतः ये आठ दृष्टियाँ ध्यान साधना के क्रमिक विकास की सूचक रही हैं। इसी प्रसंग में उन्होंने गोत्रयोगी, कुलयोगी, प्रवृत्तचक्रयोग, निष्पन्न योग आदि योगियों के भेद किये, साथ ही योग के भेद करते हुए इच्छायोग, शास्त्रयोग, सामर्थ्ययोग आदि की सुव्यवस्थित विवेचना प्रस्तुत की । इसके परिणामस्वरूप जैन ध्यान साधना में पुन: एक रूपान्तरण आया । इसमें जैन ध्यान विधि पातंजल के अष्टांग योग से अंशत: प्रभावित हुई है। इसकी चर्चा पाँचवें अध्याय में की गई है। उसके पश्चात् लगभग दसवीं शताब्दी में दिगम्बर आचार्य शुभचन्द्र 'ने 'ज्ञानार्णव' नामक ग्रन्थ की रचना की और उसमें ध्यान-साधना का विस्तृत विवेचन भी प्रस्तुत किया । किन्तु एक ओर उन्होंने जैन परम्परा की ध्यानसाधना विधि को सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया तो दूसरी ओर वे तांत्रिक साधना विधि के प्रभाव से अपने को मुक्त नहीं रख सके। उन्होंने सर्वप्रथम धर्मध्यान के अन्तर्गत पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ऐसे चार ध्यानों का तथा पार्थिवी आदि धारणाओं का उल्लेख किया । श्वेताम्बर परम्परा में आचार्य हेमचन्द्र ने भी उन्हीं का अनुसरण करते हुए जैन ध्यानविधि में रूपस्थ, पदस्थ, पिण्डस्थ आदि ध्यानों और पार्थिवी आदि धारणाओं का न केवल उल्लेख किया अपितु उन्हें जैन परम्परा के साथ समायोजित करने के लिए उनकी विधि में आंशिक परिवर्तन भी किया ।
इसी प्रकार उन्होंने पातंजल योग से प्रभावित होकर एकाग्रता की अपेक्षा से
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