Book Title: Jain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Author(s): Uditprabhashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 474
________________ अवस्थिति को ही ध्यान का लक्ष्य मानते हैं। दूसरे वे ध्याता, ध्येय और ध्यान की त्रिपुटी के मूल में आत्मा को ही देखते हैं। उनके अनुसार आत्मा ही ध्याता है और शुद्ध आत्म तत्त्व ही ध्येय है और शुद्ध आत्म तत्त्व के स्वरूप में रमण करना ही ध्यान है । ध्याता, ध्येय और ध्यान में तादात्म्य की यह चर्चा आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की विशेषता है। दूसरी बात आचार्य कुन्दकुन्द के ध्यान सम्बन्धी विवेचन में जो प्रमुख रूप से उभर कर सामने आती है वह यह है कि वे ध्यान का साध्य निर्विकल्प दशा ATHT हैं और इसलिए धर्मध्यान की अपेक्षा शुक्ल ध्यान उनकी विवेचना का प्रमुख विषय रहा है 1 कि जहाँ तक 'मूलाचार' के ध्यान सम्बन्धी विवेचनों का प्रश्न है, हम देखते हैं मूलाचार में अर्द्धमागधी आगम साहित्य के समरूप ही ध्यान के प्रकारों, लक्षणों, आलम्बनों आदि का विवेचन उपलब्ध होता है। इस प्रकार जहां मूलाचार और अर्द्धमागधी आगम साहित्य के ध्यान सम्बन्धी विवेचन में समरूपता है वहीं आचार्य कुन्दकुन्द ध्यान के सम्बन्ध में एक अलग दृष्टि ही प्रस्तुत करते हैं । 1 कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा या वारस्साणुपेक्खा में भावनाओं को ही या अनुप्रेक्षाओं को ही ध्यातव्य माना गया है । तत्त्वार्थसूत्र, ध्यानशतक, इष्टोपदेश, समाधितंत्र आदि संस्कृत ग्रन्थों के ध्यान सम्बन्धी विवेचन को प्रस्तुत शोध प्रबन्ध के चतुर्थ अध्याय में समाहित किया गया है । यद्यपि तत्त्वार्थ सूत्र मूल और उसकी श्वेताम्बर और दिगम्बर टीकाओं में ध्यान के स्वरूप, प्रकार, आलम्बन आदि की जो सामान्यतया चर्चा हमें उपलब्ध होती है वह आगमों का अनुसरण करती प्रतीत होती है । किन्तु तत्त्वार्थसूत्र की यह विशेषता है कि उसमें चारों ध्यानों के स्वामी की चर्चा भी की गई है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि जहाँ भाष्यमान पाठ में धर्म ध्यान का स्वामी बताया है, वहाँ दिगम्बर पाठ में उसके स्वामी की कोई चर्चा ही नहीं है। भाष्यमान पाठ में धर्म ध्यान का स्वामी अप्रमत्त संयत को बताया है, जबकि तत्त्वार्थ सूत्र और कर्म सिद्धान्त तथा षट्खण्डागम आदि में अविरत सम्यग्दृष्टि से लेकर आगे के गुणस्थानों में उसकी सत्ता मानी है । तत्त्वार्थ- टीकाओं में न केवल ध्यान के स्वरूप आदि का गम्भीर दार्शनिक विश्लेषण किया गया है अपितु ध्यान के काल, स्थान, ध्याता के संहनन आदि का भी विचार किया गया है । यह चर्चा भी प्रस्तुत की गई है कि किस गुणस्थान में कौनसा ध्यान सम्भव होगा । गुणस्थानों के आधार पर ध्यान की सम्भावनाओं का यह विचार अर्द्धमागधी आगम साहित्य में प्राय: अनुपलब्ध है । तत्त्वार्थ की टीकाओं की एक अन्य (4) For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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