Book Title: Jain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Author(s): Uditprabhashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 448
________________ आधुनिक चिन्तक और ध्यानसाधना खण्ड : नवम जी म.सा. तथा पं. रत्न प्रबुद्ध ज्ञानयोगी श्री मिश्रीमल जी म.सा. 'मधुकर' इन तीनों का सान्निध्य और उनसे प्राप्त विद्या, साधना और आत्मोन्नति के बीजमन्त्रों को महासती जी ने बड़ी ही लगन और तन्मयता से सहज आत्मसात् किया। आप विद्या एवं आत्मोपासना में उत्तरोत्तर अग्रसर होती गईं। आगम, शास्त्र, दर्शन, साहित्य आदि अनेक विषयों का प्रबुद्ध मनीषियों के सहयोग से आपने अध्ययन किया और अपने उस प्राप्त ज्ञान को अध्यात्मयोग के ताने-बाने में बुन लिया। आप ज्ञान द्वारा अपनी साधना को परिपक्व बनाने की दिशा में सदैव अग्रसर रहीं। ___अध्यात्मयोग-साधनामय जीवन में वांछित गुण यथा निरहंकार, नि:स्पृहता, अकिंचनता, सरलता, मृदुता, ऋजुता, सहजता, सौम्यभाव आदि अपने गुरुजनों से विशेषत: महान् साधक श्री मधुकर मुनि जी से प्राप्त किये। मुनिश्री के जीवन की ये दुर्लभ विशेषताएँ थीं, जो मानों उन्होंने अपनी इस योग्य शिष्या को भलीभाँति सँभला दी। आचार्य हरिभद्र सूरि ने जिन गुणों को योगी के लिए पूर्व सेवा के रूप में व्याख्यात किया है उन्हें महासती जी ने सहज रूप में आत्मसात् कर लिया। योग के गहन अध्ययन और तदनुसार साधनाप्रवण रहने का भाव आपके मन में समुदित रहा। आपने पातंजल योग, आचार्य हरिभद्र का योग साहित्य, आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र इत्यादि ग्रन्थों का परिशीलन किया। आपकी सदैव यह भावना रही है कि हर व्यक्ति चाहे श्रमण जीवन में हो या श्रमणोपासक के जीवन में हो,. अध्यात्मयोग की साधना करे। अबसे 39 वर्ष पूर्व आपने मुनि समदर्शी जी तथा पं. शोभाचन्द्र जी भारिल्ल के साथ 'योगशास्त्र' का सम्पादन किया, जिसका दिल्ली से प्रकाशन हुआ। हिन्दी अनुवाद के साथ योगशास्त्र' का संभवत: यह पहला संस्करण था। उसकी भूमिका जैनजगत् के महान् विद्वान्, लेखक, कवि, उपाध्याय श्री अमरमुनि जी ने लिखी। इससे महासती जी की योग में अनन्य अभिरुचि सिद्ध होती है। अध्ययन के क्षेत्र में इस ग्रन्थ का अत्यधिक उपयोग हुआ और आज भी हो रहा है। महासतीजी के विचारों में सदा से बड़ी ही उदारता, असंकीर्णता और व्यापकता रही है। यही कारण है कि आपने जैन-जैनेतर सभी महापुरुषों तथा महान् साधकों से वैचारिक आदान-प्रदान करने के महत्त्वपूर्ण अवसर प्राप्त किये। विशेषत: निर्गुणमार्गी सन्त परम्परा के रामस्नेही सम्प्रदाय के साधक-साधिकाओं के साथ महासती ~~~~~~~~~~~~~~~- 28 ~~~~~~~~~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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