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आधुनिक चिन्तक और ध्यानसाधना
(1) प्रार्थना मुद्रा :
श्रद्धा जीवन की दिव्यता का निदर्शन है। श्रद्धा में अहंकार - विसर्जन तथा स्वरूप-दर्शन का दिशाबोध है । वह अन्तः परिष्कार की प्रक्रिया है । प्रार्थना श्रद्धा प्रसूत थी, है और श्रद्धावर्द्धक भी है। प्रार्थना में अर्चना के साथ जुड़ा प्र उपसर्ग चाहया मांग में एक वैशिष्ट्य का सूचक है। वह विशिष्ट पुरुषार्थ या आत्मजागरण का सन्देश है । रागद्वेषातीत, सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परमात्मा, परम पुरुष या परब्रह्म का आदर्श प्रार्थी के समक्ष रहता है। प्रार्थी, प्रार्थना जो अन्त: प्रेरणा संजोने का रहस्यमय अर्थ लिये है, करता हुआ बहिरात्मभाव से अन्तरात्मभाव में जाकर परमात्मभाव की उपलब्धि के लिए उद्यम करता है।
प्रार्थनावस्था में साधक वज्रासन में स्थित हो । ध्यान रहे, यहाँ वज्रासन का कोई आग्रह नहीं है। यदि साधक को अधिक अनुकूलता हो तो वह सुखासन, कमलासन आदि किसी अन्य आसन का भी उपयोग कर सकता है। साधक के दोनों हाथ जुड़े हों । संयुक्त दोनों अंगुष्ठ नासाग्र पर लगे हों। यह कार्य-स्थिति भावों के अन्त: परिणमन में प्रेरक और सहायक होती है।
मुझे सिद्धि की कामना है,
प्रसिद्धि की नहीं ।
साधक शब्दानुरूप भावानुभूति का प्रयत्न करता हुआ निम्नांकित वाक्यों का उच्चारण करे
मुझे प्रेम चाहिए,
दया नहीं |
अपने पुरुषार्थ से ही प्राप्य को पाना है,
किसी की दया से नहीं ।
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खण्ड : नवम
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आत्मा में समग्र, सर्वव्यापी प्रेम, विश्ववात्सल्य के उद्रेक द्वारा संकीर्ण स्वार्थ का परिहार और वीतरागभाव के स्वीकार का उत्साह इनसे ध्वनित होता है ।
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