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खण्ड: नवम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
ध्यान है चित्त का मौन हो जाना : साधक स्वभाव में लीन होकर, संकल्पविकल्प रहित होकर चित्त की वृत्तियों को शांत करने का प्रयास करता है। चित्त की वृत्तियों का शांत हो जाना ही आन्तरिक मौन है, वह मौन ही ध्यान है।
सम्यग्दर्शन : दृष्टि में दोष विरहित, मौन समाधिस्थ चित्त विश्व को जैसा है, वैसा जानता है इसे हम सम्यक् दृष्टि कहते हैं। वस्तुत: मौन ध्यान सम्यग्दर्शन का अनुभव है।
आत्म-शुद्धि - आत्मशुद्धि अर्थात् स्वयं की शुद्धि। स्वयं की शुद्धि के अन्तर्गत निम्न पहलुओं का समावेश होता है
(1) काय शुद्धि - विभिन्न पुरातन यौगिक क्रियाओं के माध्यम से कायशुद्धि। (2) वचन शुद्धि - वाणी-संयम एवं मौन के अभ्यास द्वारा वचन शुद्धि।
(3) आहार शुद्धि - जैसा खाए अन्न, वैसा होवे मन अत: सात्त्विक आहार का बोध।
(4) प्राण शुद्धि - प्राणायाम एवं विभिन्न ध्वनियों के माध्यम से प्राणशुद्धि।
(5) चित्त शुद्धि - विभिन्न विकारों एवं विचारों से ग्रस्त चित्त का ध्यान एवं समाधि के माध्यम से शुद्धीकरण, शुद्ध चैतन्य की अनुभूति।
इस प्रकार यह एक पूर्ण साधना है। आत्मा की सर्वाङ्गीण शुद्धि है। शरीर और मन से भी परे यह ध्यान साधना है। प्रस्तुत साधना का मूल है - अकर्म अर्थात् कुछ न करते हुए भी पूर्ण आनन्द से भर जाने की साधना और यह होता है आत्मशुद्धि से।
इस साधना से सहज, सरल और तनावमुक्त होकर प्रतिक्षण आनंदित जीवन जीने का अनुभव साधक को मिलता है तथा वह वर्तमान में बढ़ते हुए असाध्य रोगों से छुटकारा पाता है। उसकी कार्यक्षमता में वृद्धि होती है, आपसी सम्बन्धों में मधुरता आती है, बुद्धि के स्तर से ऊपर उठकर हृदय की भावनाओं का विस्तार होता है 'शिवमस्तु सर्वजगत:' या 'जीवो मंगल के' की भावना होता है। स्वयं का, परिवार का एवं विश्व का मंगल होता है।22 22. ध्यान एक दिव्य साधना, पृ. 66-70 ~~~~~~~~~~~mmmmm 37 ~ ~~~~~~~~~~~~~
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