Book Title: Jain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Author(s): Uditprabhashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 463
________________ खण्ड : नवम जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम स्थिर होकर अपने भीतर देखें-अपने विचारों को देखें या शरीर के प्रकम्पों को देखें तो आप पाएंगे कि विचार स्थगित हैं और विकल्प शून्य हैं। भीतर की गहराइयों को देखतेदेखते सूक्ष्म शरीर को देखने की क्षमता अपने आप आ जाती है।" देखना वह है जहाँ चैतन्य सक्रिय होता है। जहाँ प्रियता और अप्रियता का भाव आ जाए, राग और द्वेष उभर जाएँ, वहाँ देखना गौण हो जाता है। यही बात जानने पर लागू होती है। हम पहले देखते हैं फिर जानते हैं। इसे इस भाषा में स्पष्ट किया जा सकता है कि हम जैसे-जैसे देखते जाते हैं वैसे-वैसे जानते चले जाते हैं। मन से देखने को पश्यना (पासयणा) कहा गया है। इन्द्रिय-संवेदन से शून्य चैतन्य का उपयोग देखना और जानना है। जो पश्यक है-द्रष्टा है, उसका दृश्य के प्रति दृष्टिकोण ही बदल जाता है। 2 भ. महावीर ऊँचे, नीचे और मध्य में प्रेक्षा करते हुए समाधि को प्राप्त हो जाते थे।33 उक्त चर्चा के संदर्भ में प्रेक्षाध्यान का मूल्यांकन किया जा सकता है। माध्यस्थ्य या तटस्थता प्रेक्षा का ही दूसरा रूप है। जो देखता है, वह सम रहता है। वह प्रिय के प्रति राग-रंजित नहीं होता और अप्रिय के प्रति द्वेषपूर्ण नहीं होता। वह प्रिय और अप्रिय दोनों की उपेक्षा करता है-दोनों को निकटता से देखता है इसीलिए वह उनके प्रति सम, मध्यस्थ या तटस्थ रह सकता है। उपेक्षा या मध्यस्थता को प्रेक्षा से पृथक् नहीं किया जा सकता। जो इस महान् लोक की उपेक्षा करता है, उसे निकटता से देखता है, वह अप्रमत्त विहार कर सकता है।34 भ. महावीर ने अपने शिष्यों को भी यही उपदेश दिया कि हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर।35 आगमों में यत्र-तत्र अप्रमत्त की साधना के अनेक आलम्बनों का उल्लेख हुआ है। उनकी विधियाँ अनुपलब्ध हैं। आलम्बनों की विधियों का अनुसंधान व 32. वही, 2.118 33. वही, 9.4.14 34. सूत्रकृतांग सूत्र 1.12.18 35. उत्तराध्ययन सूत्र 10-1 wwwwwwwwwwwwww- 41 ~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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